रिश्तों में कभी जंग नहीं लगती
लेकिन जंग न लग जाये के डर से
बारिश में भीगना ही नहीं
वाली सोच से
रिश्ते धूल हो जाते है
दूर तक फैले रेगिस्तान की तरह
जहाँ फिर कुछ नहीं निपजता
फिर कितनी भी बारिश क्यूँ न हो
और
रिश्तों में पसरने लगती है
ख़ामोशी की नागफ़नी
जो बींध देती है
रिश्तों के होने के मानी-
मैंने बारिश में भीगना चाहा
चौक में जंगल उग आया
बारिश में क्या था ये जानना कौतूहल था
तो एहसास में भीग कर ही
प्रेम कर लिया मैंने ..
..
मुझे चाँद छूना था
रात की सीढ़ी चढ़ सफ़र पे निकली
हाथ कुछ तारे लगे
धरती पर पहुँचते ही वो जुगनू हो गए
प्रेम कल्पना है कोरी ..
..
प्रेम का हक़ीक़त से कोई वास्ता ही नहीं।
-
मुख्तसर सी बारिश में यूँ हम न भीगेंगे
जो तू इश्क है तो..बार - बार बरस..-
हर, शख्स नहाया , यहाँ , इश्क, की बारिश में
किसी ने किताब लिखी, तो कुछ वाह-वाह हुए-
इस वक़्त में तुम्हारी
कमी पहले सी है
मेरे आँखों में ये नमीं
आज भी कुछ वैसी है
फर्क सिर्फ इतना है कि
इन होठों पर ये मुस्कान
उन बीते वक़्त की ख़ुशी
की है हा अब मुलाकातें
तो नहीं होती हमारी पर
आज भी इन बूंदों में तुम्हारी
छवि कुछ वैसी ही है...-
लेकर निकले थे घर से छतरी
इस उम्मीद पर कि बारिश होगी
सफ़र चलता रहा
स्टेशन बदल गए
जब उम्मीद का पड़ाव आया
सब कुछ तो था
पर छतरी गायब मिली.-
बरसात तो बेशुमार हुई मगर सावन नहीं आया,
अबके बरस भी लौट के मेरा साजन नहीं आया!
मेरी आँखों में छुपा है तेरा ही होने का उजियारा,
दिल में रहा सदा चाँद, पर मेरे आँगन नहीं आया!
बारिश की थी रिमझिम पर बदन में आग कायम,
जिस्म से तू था हाजिर पर मुझे सुकूँ नहीं आया!
बारिश की उम्मीद में, मैं चातक सरीखी बन गई,
पर स्वाति नक्षत्र में भी तू, बूंद बनकर नही आया!
तुमसे जो मोहब्बत की तो मैं दुनिया भी छोड़ दी,
फिर भी तू कभी, मेरा थामने दामन नहीं आया!
मेरी मौत भी बेबस है अब, आ के तेरे दर पर भी,
फिर भी जान कह रही है, मेरा जानम नहीं आया!
विरह के जख्म अब तो नासूर में तब्दील होने लगे,
एक बार भी "राज" तू मरहम बन कर नही आया! _राज सोनी-