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रात की शाख़ पे उग आया है सन्नाटा,
ख़ौफ़ के मंज़र बाट रहा है सन्नाटा..!!-
ख़बर उसकी सहेली से हमें अब भी ये मिलती है
अकेले हम नहीं जगते,कि शब भर वो भी जगती है
न ख़ंजर है न चाक़ू है न ही हथियार रखती है
फिर उसकी कत्थई सी आँखें कैसे क़त्ल करती है
तबीयत, नींद, खाना वो मेरा हर ख़्याल रखती है
मुझे वो लड़की,माँ की ही कोई हमशक्ल लगती है-
अल्फाज़ का एक दहर है उसके पास
वो ग़ज़ल सी एक बहर है उसके पास
उसको देख ख़ुद -ब- ख़ुद मुस्कुरा दोगे
ख़ुशियों भरा ऐसा शहर है उसके पास
उसकी शफ़क़त उसका नूर कमाल है
छाया देने वाला वो शजर है उसके पास
ज़रा सी बात पर ख़फ़ा होना आदत है
आँसुओं की तो इक नहर है उसके पास
कुछ भी हो हमेशा उसी का है 'आरिफ़'
मेरी ज़िन्दगी का हर पहर है उसके पास-
नरगिस-ए-साहिर हो तुम नूर-ए-नज़र हो
जिसे देखकर ही खो जाएँ ऐसा असर हो
पुर-नूर हो गया 'आरिफ़' तुमसे मिल कर
मैं तुम्हारा क़ाफ़िया औ' तुम मेरी बहर हो-
मत कर ऐतबार मेरे मिज़ाज का
शायर हूँ
ग़म भी बहर में लिखता हूँ
- साकेत गर्ग-
इरादे ही नहीं अंदाज भी कुछ खास रखता हूं
रहो बच के सभी मुझसे मैं खंजर पास रखता हूं
न जाने ये सलीके कौन जीने के सिखाता है
मिरे हालात कुछ भी हो मैं रब पे आस रखता हूं
चला जब भी कभी घर से भटक थोड़ा सा जाता हूं
तभी तो साथ अपने मैं बूढ़ा कंपास रखता हूं
मिरी ख़ामोश सूरत को उदासी मत समझ लेना
बहुत ख़ामोश होकर भी नया उल्लास रखता हूं
अभी भी हां तिरे वो ख़त सहेजे है सभी मैंने
सज़ा देने मैं ख़ुद को घर में कारावास रखता हूं
हरे बागों मुझे तेरी खिली कलियों का ही डर है
सो उनके साथ आंगन में ज़रा सी घास रखता हूं
सभी"मानस" को केवल मौत के क़िस्से सुनाते हैं
मगर लाशों की बस्ती में धड़कती सांस रखता हूं-
غزل/ग़ज़ल
سکون دل کو میرے ذرا سا دلا دو
لکھا میرا جو بھی ہے سب کچھ جلا دو
सुकूं दिल को मेरे ज़रा सा दिला दो।
लिखा मेरा जो भी है सब कुछ जला दो।
کہ سپنے سبھی ٹوٹ کر اب ہے بکھرے
چلو یار تھوڑی ہمیں بھی پلا دو
कि सपने सभी टूट कर अब है बिखरे।
चलो यार थोड़ी हमें भी पिला दो।।
مسیحا مرا بن کے اك کام کر دو
کہ کھوٹے ہے سکے کوئی تو چلا دو
मसीहा मिरा बन के इक काम कर दो।
कि खोटे है सिक्के कोई तो चला दो।।
بہت تھک گیا ان غموں کے پلوں سے
کسی اك زہر میں مجھے تو گلے دو
बहुत थक गया इन ग़मों के पलों से।
किसी इक ज़हर में मुझे भी गला दो।।
کہ بدنام "مانس" بنا کچھ کیے ہی
زبانیں شہر کی سبھی تم سلا دو
कि बदनाम"मानस"बिना कुछ किए ही।
ज़बानें शहर की सभी तुम सिला दो।।-
बहुत रोया अकेला मैं इसी दौरे नज़ारो में
बताऊँ कैसे मैं तुम को सभी खोये बहारों में
अभी भी जो खड़ी है ये कभी रोती नहीं दिखती
बड़ा ही दर्द होता है खड़ी बूढ़ी दीवारों में
अभी ठानी नईं इक धुन चलो तुम को सुनाता हूँ
बनाना मुझ को भी है इक घरौंदा उन सितारों में
महज़ लड़की नहीं है तू कोई कश्मीर लगती है
चले खंजर तिरे खातिर मिरे कूचे के यारों में
मिलेंगे चमचमाते बुत,दिलो से जो फरेबी है
मगर"मानस"नहीं होगा कोई भी उन हज़ारों में-
कभी इस फिज़ा में कबूतर दिखें जो।
हमें याद आये तुझे ख़त लिखें जो।।
सभी को मिरी बात दावे से कह दो।
भुलेगा न तुम्हें कोई भी चखें जो।।
मिरी रात वो मय की बाहों में गुजरी।
किसी रात ये घाव मेरे दुखें जो।।
मुक़ाबिल मिलेगा न कोई यहां पे।
ज़िगर मेरे माफ़िक़ कोई भी रखें जो।।
किसी रोज़ गुजरो सभी बुत ख़ानों से।
कि मूरत"मानस"सी कहीं भी दिखें जो।।-