ग़ज़ल के चंद लफ्जों में तेरी ही बात अब होगी
उन्ही मिसरों में मेरी भी कहीं औकात अब होगी
सियासत है अगर ये चाहतों का रोज़ टकराना
सँभलना ए मेरे हमदम किसी की मात अब होगी.!!
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नैनो की गागर छलकेगी
जब तुमसे जुदा हो जाऊँगी
तुम दोगे सदाएँ लाख मगर
मैं लौट कर फिर न आऊँगी
देखोगे तुम मुझको अपलक
मैं पंछी बन उड़ जाऊँगी-
बाल भी उस दिन खुले थे उसके, काज़ल भी लगा रखा था,
और उसके झुमकों ने तो अलग ही उधम मचा रखा था...-
'कितना कुछ था...
औऱ तुमनें यह कितने में गुजारा किया
रिश्ते क्या... इतने कम पड़ गये
जो आख़िर में एक रस्सी का सहारा लिया...,-
आंखों में चिथड़े अंसुअन के
किसने धड़कन है.. लूटी सी,
मुहब्बत के इस जंगल में
इक टहनी है.. सूखी सी,
यादों के चौराहे पे
वो इक राह है.. छूटी सी,
मूर्छित सा हूँ मैं मुहब्बत में
साँस मेरी है.. टूटी सी,
उफ़्फ़.., जीने की तमन्ना है
औऱ वो इक संजीवनी.. बूटी सी..!-
यह जिस्म यह जान.. सब तुम्हारे हैं
मुहब्बत के सबूत औऱ भी बहुत सारे हैं,
ज़रा देख तो आके लैला.. तेरे मजनूँ को
लोगों ने.. पत्थर कितने मारे हैं,
"हाँ" वो मुहब्बत में ही पागल हुआ होगा
जो यूँ उसने सरे-बाज़ार कपड़े.. उतारे हैं,
रहने दे ना ज़िन्दगी.. अभी क़यामत की बातें
अभी हमनें.. तेरे दिन ही कितने गुजारे हैं,
उफ़्फ़.. तेरे पास आकर फिऱ से लौटना होगा
कहे कश्ती.. यह दूर कितने हमसे किनारे हैं..!-
"इक समुंदर है औऱ हम इक लहर से हैं यहाँ
ज्यादा देर तक बुलबुले ठहरते हैं कहाँ,
सोचता हूँ फ़र्क क्या है कश्ती औऱ मांझी में
बस पत्थर डूबते हैं औऱ पत्ते तैरते हैं यहां,
बा ख़ुदा यह ज़िन्दगी है, सब ख़ैर से हैं यहाँ
सभी आपनें हैं, पऱ अफ़सोस..सभी ग़ैर से हैं यहां"-
मोहब्बत दम तोङती है अरमां रोज कुचलते हैं ,
वालिद के गुरूर के खातिर कुछ औलादे ऐसा करते हैंं !!
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बचपन को जवानी, जवानी को बुढ़ापा देकर,
बड़ा भागा था वो ज़िन्दगी को लेकर,
तमाम उम्र गुजार दी फ़िक्र में ही जिसने
देखो अब कैसे सोया है बेफ़िक्र होकर..!-