आती जाती सांसो पे उधार कितनों की दुआ है
ज़िन्दगी , बिन अपनों के किसका भला हुआ है।
बदलते हालात वक्त की कितनी बाज़ी प लटा है
खेल तू, दांव से क्या घबराना ज़िन्दगी जुआ है।
जहाँ में पसरा मातम, चश्म-अश्क-रेज़ बिखरा है
ये गर्दिश-ए-अय्याम किस नाशुक्र की बद्दुआ हैं।
ख़ुद के शौक-ए-तलब से कितनों को कुचला हैं
मौतों पे झूठी आंसू बहता हैं ये कैसा अगुआ हैं।
कारसाज़ बने हम, फ़ित्ना से कौन रौशन हुआ है
बाईखलाख शख़्स ही सब के दिल को छुआ हैं।
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