यूँ भी अचानक.. मन द्रवित कई बार हो जाता है
अपरिचित से सफ़र पे भी.. चलने को यह तैयार हो जाता है,
जिसकी ना मंज़िल कोई.. ना कोई ठिकाना
उस पंथ से भी.. जीवन में प्यार हो जाता,
दो विपरीत दिशाओं का साथ चलना मुम्किन नहीं है
बस यूँ ही बेवज़ह किसी का इंतजार हो जाता है,
ईक़ विमुख सी अनुभूति .. दर्पण दिखाये
के सम्मुख जिस्म-ओ-जाँ का दिदार हो जाता है,
ख़्वाईशों की तरंगिणी में.. यह कश्ती सा मन है
यह क़भी इस आर.. तो क़भी उस पार हो जाता है,
अज़ीब से घर में.. यह बसर करता है
के मन क़भी दर.. तो क़भी.. दिवार हो जाता है,
यूँ ही अचानक.. मन द्रवित.. कई बार हो जाता है!!-
सब्र कर बंदे....
सदा यह दुःख रहता नहीं,
इक शज़र की छाया है
इसका इक सा मुख रहता नहीं,
आख़िर छूट जाता है सबकुछ
हाथ में कुछ रहता नहीं,
इक पंछी की उडारी है
सदा डाली पे बैठा सुख रहता नहीं,
ज़िन्दगी का सफ़र तो है बस मरघट तक
औऱ दूसरा कोई रुख रहता नहीं,
सब्र कर बंदे...!-
ज़िन्दगी तेरे आईने में
ख़ुद की.. याद देख रहे हैं,
काले-काले बालों में
अब.. सफ़ेद से दाग देख रहे हैं,
आसमाँ से टूटे तारे
अपनें.. घाव देख रहे हैं,
ना जाने क्यूँ पंछी.. पिंजरे के
अब ख़ुद को आज़ाद देख रहे हैं,
आसमाँ के अरमाँ.. फिऱ
हम बड़े दिनों बाद देख रहे हैं,
उफ़्फ़.. पंख मेरे तो टूटे हैं पर
नयन.. फिऱ से ख़्वाब देख रहे हैं!!-
प्यार में ये बिजी डिस्टर्ब इग्नोर जैसे शब्द होने ही नहीं चाहिए.
और अगर ऐसा हो 'अभि' तो कभी प्यार ही नहीं होना चाहिए.-
उड़ती हैं उम्मीदें परेशान सी,
सोचें कोई बेख़बर ख़बर ले ले,
ठिकाना ख़ुशियों का मिल जाये,
जो यह शाम ढ़लने में जऱा सब्र ले ले,
कहे पंछी तू मेरे पर ले ले,
पऱ मुझको अपने घर ले ले..!-
हाथ में आया छूट गया,
पछताये क्यों तारा था टूट गया,
आंधी कर गयी घर-बेघर ,
अंडा था गिरकर फुट गया,
बोलो.., पंछी क्या फिऱ रुठ गया..?
मार उडारी उड़ जा दिल,
यह पंख अटारी में क्या यारी,
ईक रात का सपना देखा था,
ईक नींद ही तो हमारी लूट गया..!-
कौन सी डाल पे बैठा था रात को,
पंछी भूल जायेगा सुबह इस बात को,
मैं भी यूँ, बेफ़िक्र, क्यूँ ना रहूँ ज़िन्दगी,
चलने दे हवा, हिलने दे शाख को,
कौन सी डाल पे बैठा था रात को....!-
आसमान से ऊंचे ख्वाब देखना
भी तो हमारे लिए मुनासिब नहीं,
रिश्ता में बंधे इंसान है हम,पंछी भी तो नही
हमारी उड़ान बस एक दरवाजे से दूसरे दरवाजे तक है,
आसमान हमारी किस्मत में भी तो नही...!!!-
सुना है,शाम होते ही पंछी अपने घर लौट आते हैं...
मेरे हिस्से में वो शाम नहीं या तुम वो पंछी नहीं !!-
ख़्वाब हसीन औऱ हक़ीक़त भयंकर है
जाने यह जीवन क्या षड्यंत्र है,
श्वाशों की ही उम्र सीमित है
इस सवा को तो चलना निरंतर है,
सोचूँ... आसमां पे हों पंछी या बंद पिंजरे में
सांसों की गति तो... एक समान्तर है,
पर क़भी उड़ के देख "अशोक" खुला परिंदों सा
बंद कमरे औऱ बाहर की हवा में बड़ा अंतर है!!-