// नुक्ता-चीं=आलोचक //
यूँ तो नुक्ता-चीं बहुत थे मेरे, जहां में
पर तारीफ़ के काबिल,मां ने समझा
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वो लहजा़ याद आता है,तुमसे पहली मुलाकात का,
धीमी सी आवाज़ में बात करने का लहजा याद आता है।
हर बार हर बात को नुक्ता से समझा नहीं सकते,
"जया" जहाँ नुक़्ता जरुरी नहीं है, बेवजह नुक़्ता नहीं लगाते।
सागर किनारे रेत के घरोंदे बनाया नहीं करते लहरों से टूट जाते हैं।
दिल के टूटने पर साग़र पे साग़र यूँ पिया नहीं करते।
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वो चेहरे का तिल
उसका दिल बयान करता है,
कुछ उर्दू सी है माशूका मेरी।
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Mr. Bond√√-
इजहारे इंतजार में
लहजा शुआ-ए-सहर थी ।
चाहत कि नुक्त़ा में
साग़र इसरार-ए-हयात था ।
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हर हर्फ पर नुक़्ते की रंगीन बिंदी थी,
मेरा प्यार उर्दू था, मेरी चाह हिंदी थी!!-
लहज़ा बन मुझको मिली सपनों की सौगात,
बदल गया लहजा मेरा हुई नयी शुरुआत.!
नुक़्ते भर की थी ख़ता बदल गए सब अर्थ,
नुक्ता ये अंतर बड़ा भाव हुए सब व्यर्थ..!
साग़र से कैसे बुझे सागर जितनी प्यास?
सारे मौसम एक से पतझड़ या मधुमास!
सिद्धार्थ मिश्र-
किस्मत के एक 'नुक्ते' पर
तख़्त पलट जाता है,
कि एक 'नुक़्ते' के होने, न होने से
मतलब बदल जाता है।-
मेरी ज़िन्दगी में नुक्ता-चीं निकालने वाले बहुत थे
फ़िर क्या मैने भी तौफे में उन्हें आईना दे दी-
लहज़ा दर लहज़ा लहजे बदलते रहे
सागर से साग़र में डूबे रहे
मात्राओं और नुक़्ता में उलझते रहे
समझ न पाए नुक्ते जिंदगी के
ख्वाहिशों के जंजीर में जकड़
करते रहे जिक्र तेरा
कभी ग़ज़ल में कभी कविता में-