✍️ बखेड़ा ✍️
उल्लू की दुम पे पटाखा रक्खा
उल्लू बोला के वजन सा क्यूं है
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फटा पिछवाड़ा उछलकर बोला
धूप निकली है अंधेरा क्यूं है
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आंख बेहतर हैं ज़हन अंधा है
रात गहरी है सवेरा क्यूं है
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रोशनी चुभती है आंखों में “विनय”
और दुनिया में बखेड़ा क्यूं है-
फिर क्यों हो, गुम-सुम ?
सिर्फ फिक्र करने से अभी-
हर्गिज न सीधी होगी कभी ,
दुनिया वालों की टेढ़ी दुम !
लगे रहो, देते रहना दस्तक-
खुलेंग दर, नत होंगे मस्तक !
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उनके सुख-दुख में बनावट आपकी शामिल रही है।
उनके दिल की राह ही बस आपकी मंज़िल रही है।
ग़ौर से देखे कोई, तो साफ़ देखी जा सकेगी,
लुप्त कब की हो चुकी, पर आपकी दुम हिल रही है!
(दिनेश दधीचि)
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बर्दाश्त कर सको तो सुनो तुम एक बात।
जल्द ही बिगड़ेंगे तुम्हारे अब ये हालात।
कुत्ते की दुम की तरह रहते हो यूं टेड़े-
बाज नहीं आते हो करने से खुराफात।
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है नहीं कोई ऐसी जगह जहाँ उनके नाम का इश्तिहार नहीं।
न जाने किस मिट्टी का है बना समझने बुझने को तैयार नहीं।
कुत्ते की दुम की तरह सदा इतने टेढ़े रहते आए हैं यहाँ -
टूटना मंजूर पर सुधरना उन्हें किसी भी हाल स्वीकार नहीं।
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