वागर्थाविव संप्रक्तौ जगतपितरौ यथा ।
आवामपि प्रतिपत्तये प्रिय जगति तथा ।।
अर्थात्-जिस प्रकार शब्द और अर्थ की भाँति जगत के माता पिता पार्वती और शिव परस्पर एक दूसरे में मिले हुए हैं... हे प्रिय (पति पत्नी)हम दौनों भी इस संसार मे उसी प्रकार विद्यमान हैं
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दम्पती केवल अपने
अंश के स्पर्श से प्रसन्न
होते हैं..वो केवल
माँ पापा बनने के आनंद
को अनुभव करते हैं...
फिर चाहे वो बेटी हो या
बेटा...फर्क नहीं पड़ता
ये दिमाँग तो केवल
आसपास के लोग
लगाते हैं...और जमकर
विरोध न करो तो वो बच्चे के
माता पिता के दिमॉग को
भी प्रभावित कर देते हैं
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उस बुज़ुर्ग दंपत्ति को मैंने, कभी भूले-बिसरे ही निहारा था
धीमे-धीमे साथ चलते थे दोनों, कभी हाथ, तो कभी कंँधे का सहारा था
उस बे-मौसम बारीश कि शाम में वो वृद्ध महिला परेशान लग रही थी
किसी कीमती चीज़ को खो जाने वाले कि तरह, उसकी पहचान लग रही थी
मुझे लगा शायद उनके पति उस रात घर नहीं आए थे
ओर हुआ भी युं, वो अकेले ही टहलने निकल गए थे
किसी से पता चला कि वो पास के मोड़ पर ही खड़े हैं
किसी टपरी के छत के नीचे, बारीश से बचने पर अड़े हैं
वो बुज़ुर्ग महिला फौरन छाता लेकर निकल पड़ी अपने साथ
पता नहीं क्यों एक प्लास्टिक का लिफाफा भी था उनके हाथ
जब उन्हें आते देखा, तो छाते में पति, और लिफाफा ओढ़ पत्नी आ रही थी
पुरी तरह भीग चुकी थी वो, मगर उसकी मुस्कुराहट बढ़ती चली जा रही थी-
उससे न कभी व्यापार करिये
ये आपकी ही तो संपत्ति हैं
ये औऱ आप आपस मे दंपत्ति हैं
सबको होता इससे प्यार हैं
पर कभी दिखाते नहीं हैं यार
कुछ बोलते हैं जिंदगी कट रही हैं
बस कुछ बुरे पल छाट रही हैं
जो बुरे दिन अब गुज़र रहे हैं
वो अच्छे दिनों का संकेत दे रहे हैं
जिंदगी जीने के लिये होती हैं न कि काटने के लिये
ऐसे ही प्यार करने के लिए होता हैं न कि मारने के लिए-