तुम्हारे प्यार ने मुझे परिकल्पनाओं
का समंदर दिया था मुझे ,
उसी में डूबकर मैं गोते लगाने लगी थी,
परंतु जब तक सभांलती मैं इनकों,
इक झटके से झूठ के बवडंर मैं,छिन्न-भिन्न,
हो गया था अंर्तात्मा का वह स्वप्न,
फिर भी यर्थाथ जो कि शाशवत था,
और है आज भी,उसे जी रही हूं,
मैं फिर अपनी परिकल्पनाओं में
पिरोने लगी हूं तुम्हें, जानती हूं तुम्हें
यह सब कहना अच्छा न लगेगा,
फिर भी अपने अंर्तमन की व्यथा,
लिख रही हूं, जो सही है वही कह रही हूं।
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