क्या सहता, क्या कहता, धूप की तपिश
क्या लिखता, क्या सुनता, धूप की तपिश
कभी पसीना तो कभी आग की निश़ानी है
कभी जलती, कभी उड़ती, धूप की तपिश
पेड़ पौधे सारे इसी से जल जाया करते हैं
चुप रहती, और सब कहती, धूप की तपिश
सागर, नदियाँ भी इसी से सूख जाया करते हैं
कभी आग, तो कभी शो'ला, धूप की तपिश
कितनों के अरमानों को पिघला ही दिया इसने
कभी उड़ती, तो कभी बहती, धूप की तपिश
ज़िन्दगी के लिए ज़रूरी भी है ये कभी-कभी
कभी खाना, तो कभी पानी, धूप की तपिश
"कोरा काग़ज़" बना देती है ये सबको "आरिफ़"
कई झगड़ों की है निश़ानी अब ये धूप की तपिश
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