प्रकृति हर पल-खुशीयां लुटाए ।
मानव मन में फिर विषाद क्यूँ है?
धर्म सभी प्रेम सिखलाएँ
दुनिया में फिर ये विवाद क्यूँ है?-
विषाद की गहन गहराइयों से
विचारों के अमूल्य रत्न ढूंढ लाओ
डूबो नहीं विषादों में
तुम गोताखोर हो जाओ।-
कोई भूलने का हुनर सीखा जा
कुछ नहीं तो मरने की तरकीब बता जा-
आज एक साल और बीत गया
जिंदगी को एक और नया ज़ख्म दे गया
कुछ ख्वाहिशें ,आशाएं ,उम्मीदें ,सपनें अधूरे छोड़
जीवन का एक और पड़ाव कम कर गया
लो यह साल भी बीत गया
समय का पहिया फिर जीत गया
खोकर आज यह अतीत में छीप जायेगा
जाते जाते दुनिया के रंग बता गया
आज एक साल और बीत गया
आज एक साल और बीत गया-
उनको लगता है कि हमने कइयों से वफा की है । कमबख्त नींद तक को नहीं आने दिया इन आंखों में ,
फिर बताओ कैसे हमने बे-वफा की हैं ।।
हमसे जी भर गया लगता है उनका ।
इसलिए ही हम पे दूर होने की जफ़ा की हैं ।।
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आब -ए -तल्ख़ जाम बनाकर पिया जाता है
"विषाद" फिराक़ में ऐसे ही जिया जाता है-
तेरी आँखों की मस्ती के सैलाब में, मे डूब न जाऊ
तेरे होंटो के सलवटों में, मे राह न खों जाऊँ
यह कैसी तेरे इश्क़ की ख़ुमारी मुझ पर छाई हैं
मेरी हर बातों में मेरी हर यादों में, मे तुम्हें ही पाऊँ-
भौतिकता के इस दौर में, जो ‘विषयो’ में है अटक गया
जीवन विकास की दौड़ में, वो जीवन से ही भटक गया
विज्ञान के इस दौर में, सारे जहा का उसके पास ज्ञान है
मानव होकर भी मानव जैसा, दिखता न उसमें कुछ खास है
नादान है ये मानव, जो चला गया तेरे पास से
यही कारण है मां, जो घिरा पड़ा हैं ‘विषाद’ से
रोती हुई सूरत है जिसकी, जो हो गया निराश है
ऐसे मानव का ‘जीवन विषाद’, मिटा रहा ‘गीता प्रसाद’ है
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न जाने क्यों वो ,लौटकर ही नहीं आता ।
लौट आउगाँ में, जो हर बार था समझाता ।।
जाने से उसके पिकर विष उर आधि घायल ।
चाहकर भुल जाना, इस नजर को नहीँ क़ायल ।।-
तुम्हारे होंने का अहसास दिला रही थी ,
जिस और तू मुँह करके खड़ी थी,उस और से बह रही थी ।
कभी मंद कभी तेज हो रही थी ,तुम्हे पास लाना चाहा रही थी ,
सहसा कानों को छू कर गुजर रही थी ,यह हवा कुछ कह रही थी ।।
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