बचपन मै एक मकड़ी को गिरते, फिर चढ़ते देखा है।
नन्ही सी उन अँखियों ने फिर ख्वाब बुनते देखा है।
बचपन बीता , यौवन आया उम्र ने भी अंगड़ाई ली।
जो सपने मैंने देखे थे, कुछ धूल सी उनमे छाई थी।
बैठ जब में लगी सोचने , एक बात समझ मे आयी थी।
कायरपन और हार नहीं , बस जीत ही दुनिया की सच्चाई थी।
खुली आँखों से देखे उन सपनों में फिर से अंकुर फुट गया।
मेहनत की सच्चाई से , हार का भरम भी टूट गया।
दिन से याराना था मेरा , रातें भी मेरी साथी थी।
सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ती गयी , मंजिल एक दिन तो आनी थी।
जिद्दी जज़्बात और अधूरे ख्वाब फिर रगों में हुंकार भरने लगे।
मेरी कामयाबी के किस्से शहर में गूंजने लगे।
थककर बैठ न ए बरखुद्दार , जल्द ही ये मौसम बदलेंगे।
तू चल , रुक मत , बस चलते जा, अब तुझसे मंजिल पर ही मिलेंगे।
-Payal Porwal“शक्ति”
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