जान-ए-बहार-ए-ज़िंदगी मुझसे जरा नज़रे मिलाए जा,
साया-ए-ज़ंजीर से मुझे फ़ैज़ करा या रिहा कराए जा।
वो घुट के कहीं मर ही न जाए मेरे अंदर दीप जलाए जा,
गुरुओं की महिमा से कब से दूर हूं मुलाकात कराए जा।
सवाद-ए-शौक़-ओ-तलब जिंदगी का बाब कौन सिखाएगा,
जारी है अश्क-बारी इज़्तिराब जिंदगी का कौन बरी कराएगा।
मुद्दतों तक पढ़ाया सर-ए-राहगुज़र पे हूं जाने किधर जाऊंगा,
पढ़ाया और सिखाया तो बहुत कुछ लेकिन भूल कैसे पाऊंगा।
अ से ज्ञ तक का पाठ सीखा है उनसे यूं ही दूरी न कराए जा,
नफ़ी है अभी खुद में जहालत से उस्ताद तिलिस्म दिखाए जा।
वक़ार जिसको नहीं मालूम उससे क्या ही उम्मीद किया जाए,
लाख गिराए कोई ऐसे राह में संभल के चलना सिखाया जाए।
'शागिर्द'-ए-ख़स्ता-हाल को सियासत अपने जैसा तू बनाए जा,
हमनें गुरु से सीखा है थक के दम न ले बस कदम बढ़ाए जा।-
यूँ ही नही ज़र्रा-ज़र्रा, क़तरा-क़तरा कमाल हुए है
पाँव दबाये है उस्तादों के, तब जाके निहाल हुए है।
•ılılı•ღ मनीष ღ•ılılı• ٠-
सिखाया उस्ताद ने इल्म तो हासिल हुआ मर्तबा
सिखाया ज़िन्दगी ने जीना तो हासिल हुआ तजुर्बा-
हैं वो शुजा................ दयारों में
कलियाँ हैं जैसे........... ख़ारो में
जिस्त की तख्लीक़ हमें सिखाएँ
आ'ला हैं सभी...... मे'अमारों में
हैं इल्म के पैकर......रौशन जहाँ
ठंडक जैसे............आबशारों में
क़लिद-ए-निज़ात, मुमकिन उनसे
वरना वक़'अत क्या खाक़सारों में
शम्स के जैसे, खुद को जला कर
चमक बिखेरते..............तारों में
क़लम में उनके........ धार इतनी
होगा क्या ..............तलवारों में
गहराई को ....नाप ले.......कोई
नहीं....पैमाना....... इक़्तेदारों में
क़ातिब -ए-क़लम, खामोश हुयी
नामुमकीन हैं बयाँ अश'आरों में।-
उस्ताद क्यों रोया था किस हालात का मारा था,
सिखाया जिसने बच्चों को मोहब्बत कैसे लिखते हैं
استاد کیوں رویہ تھا------ کس حالات کا مارا تھا
سکھایا جسنے بچوں کو محبّت کیسے لکھتے ہیں-
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ज़माना बड़े शौक़ से सुन रहा था।
हमीं सो गए, दास्ताँ कहते कहते।।
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Duniya wo kitaab hai jo padhi nahi ja sakti...
Lekin zamana wo ustaad hai jo sab kuch sikha deta hai-
आँख़ों में आँख़े डालकर मिलते हैं,
इर्द गिर्द नहीं मिलते।
अब 'ज़रूरतमंद' मिलते हैं उस्तादों को,
'शाग़िर्द' नहीं मिलते।-