तस्दीक़ होती भी कैसे तुम्हारे इश्क़ की?
तुर्बत-ए-दिल ख़ामोशी के सिवा कोई और ज़बान नहीं समझता,
और तुम झुंझते रहे; उलझते रहे बेमतलब से लफ़्ज़ों को समझाने में।
इन कोशिशों से हासिल तो कुछ ज़ियादा हुआ नहीं,
मगर शक्लें रंगनें लगी उन रंगों में,
जिन रंगों से कोई जान पहचान नहीं थी।
आंखें और बातें छिपाती रही,
और रूह तिलमिलाती रही;
एक एक पल घुटती रही, मरती रही
मगर मैं कुछ ना कही, जुबां चुप रही
कुछ चीज़ें होती ही सही,
दफ़न, दबी, अनकही।
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