मेरे मुल्क के फ़िज़ाओं में ज़हर घोलने की एक साज़िश तो है...
वरना एक घर बचाने के वास्ते दूसरे को जलाने वाली रिवाज हमारी तो न थी...
कुछ कहकहों, अफवाहों का एक दौर सा तो है,
वरना हक़ की बातें करते करते,
वतन-ख़िलाफ़त के गूंज में तब्दील आवाज़ कहीं हमारी तो न थी...
घर के हर मसले पर,यूँ खुले में नाच नंगा नहीं करते...
जिनके सगे को भीड़ ने कुचला हो,वो यूँ सड़कों पर दंगा नहीं करते...
मज़हबी सियासत के लिए नफ़रत फैलाने वालों,
तुम्हारी आवाज़ बस इस लिए निकल पाती है...
क्योंकि चाहे इधर वाला मरे,चाहे उधर वाला मरे,
वो मज़बूर का "जना" औलाद, तुम्हारी तो न थी..।
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