अर्थ सा हूँ भाव इक हूँ,
प्रेम की संहिता पे बसता अस्मिता का गाँव इक हूँ।
कर्म सा हूँ निर्वाह इक हूँ,
समुद्र की लहरों पे चलता काठ की मै नाव इक हूँ।
दर्द सा हूँ सद्भाव इक हूँ,
धूप की तपती मे रहता वृक्ष की मै छाँव इक हूँ।
तप्त सा हूँ प्रकाश इक हूँ,
तेज हूँ मै सूर्य का सा लकड़ियों की आग इक हूँ।
पवन सा हूँ तूफान इक हूँ,
मृत मरुस्थल मे हूँ उगता वृक्ष का मै प्राण इक हूँ।
नीर सा हूँ धीर इक हूँ,
प्रभु राम के धनुश पे तनता मर्यादा का तीर इक हूँ।
गमन सा हूँ वंश इक हूँ,
परमात्मा की उर्जा से चलता मात्र मै तो अंश इक हूँ।
अक्ष सा हूँ प्रतिबिम्ब इक हूँ,
नव फलक पर रोज उगता सूर्य सा मै डिंब इक हूँ।
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