रिश्तों को संजोता हुँ किसी से तोड़ता नही,
दुश्मनों का दुश्मन हुँ किसी को छोड़ता नही,
हैं वहीं इंसान बुरे वक्त पर काम आए,
ज़रूरत पर किसी से जो मुँह मोड़ता नही,
सर्द रातों को गुज़ार लेता हुँ सुकून से,
कम्बल हराम के में कभी ओड़ता नही,
ज़िन्दगी खुद्दारी में रहकर बिताता हुँ में,
दौलतमंद के पीछे ये ज़मीर दौड़ता नहीं,
अपनों के नही तो मेरे क्या होंगे #रज़ा,
ऐसो की जी हुज़ूरी में हाथ जोड़ता नही।
●रज़ा ख़ान रज़ा
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