मेरा मन मुझसे कहता है,
पागल कितनों को सहता है?
क्यों ऐसे ही तू रहता है?
अब ऐसे रहना छोड़-छोड़,
सीधे रस्ते को मोड़-मोड़!
मैंने भी मन को बता दिया
एक बात कहा,और जता दिया,
पुरुषोत्तम वो जो शहनशील,
तुझको क्यों चूभती कील-कील?
मेरा मन ढीठ चुप ना रहा,
मुझसे दूरी ना उसने सहा,
उसने भी पलटकर मुझसे कहा,
तू महान और तेरी सोच,
पर लोग निकालेंगे इसमें खोट!
उसपर भी ना मैं मौन रहा,
अगले ही पल मैं लपक कहा,
उनको उनका कहने दे रे मन,
सफ़ल बने उन सबका जीवन!
अपने करम मैं किया करूँगा,
उनके लिए ही जीया करूँगा!
तब जाकर मन हाथ जोड़,
कहता मुझसे शब्दों को तोड़,
तू कलयुग का है राम-राम
कर ले पूरा हर काम-काम!
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