कुछ लड़कियां बचपने की दहलीज पार करते ही
बन जाती हैं "मां", हां! उन्हें पत्नी का दर्जा प्रदान किया जाता हैं, उस "एक दिन के रिवाजों" से, जिसमें ना कुछ सीखाया जाता हैं और ना ही कुछ बताया जाता हैं, बस दर्जा दे दिया जाता हैं। जैसे, कोई प्रमाण पत्र! ये एक ऐसा प्रमाण पत्र होता है जो बिना ट्रेनिंग के थमा दिया जाता है। फिर ट्रेनिंग को बोझिल बना दिया जाता हैं और ये ट्रेनिंग कभी खत्म ही नहीं होती है।
फिर वो पत्नी बनने की कोशिश करती है। पर उसे क्या पता होता है, कब तक डिग्री पूरी होगी? इसी बीच में वो "मां" बन जाती है। हां, ये ट्रेनिंग का हिस्सा नहीं होता है। पर माना जाता है।
बाद इसके जब वो "प्रेमिका" बनती है, इन सब से छूप–छुपाकर और बच–बचाकर, तो, बला की खूबसूरत लगती है।
तब क्रांति जन्म लेती है। जिसमें ना खून–खराबा और ना शोर–शराबा, सिर्फ प्रेम की, मोहब्बत की, प्यार की और इश्क़ की तासीर होती है।
वो तब ख़ुद को संपूर्ण मानने लगती है। उसे ख़ुद पर नाज़ होने लगता है और इसका असर उसके आस–पास सबको नज़र आने लगता है। ऐसे में तब वो और भी बेहतर "मां" बनने लगती है। इसी कड़ी में वो एक बेहतर "प्रेमिका" भी बनती है और अपने वात्सल्य को और मजबूत बनाती है। शायद! अपने "बच्चें" में वो अपने "प्रेमी" को पाती है।
और हां! पत्नी तो वो उमर भर बनती ही रहती है।
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