ख़ुद से मुलाक़ात!
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नहीं रहा वो कोना, वो कमरा
और उससे जुड़ी यादों
का संदूक ।
कहीं छूट गया, दीवारों के पीछे !
तस्वीरें दिखती हैं, चलता हुए मैं, भाई,
अम्मा और पापा।
थक हार के उसी एक कोने में
सुकून मिलता था, अब सुकून कहां!
मैं तो सालों से बंजारा था, अब हम सब हैं।
लकीरें अक्सर बेजुबां, कर देती हैं।-
ये ख्वाइशों का मरना क्या है?
मेरे अंदर का बचपन और ये वक्त
दोनों ही तो हैं।फिर मेरे सपने में अंधेरा,
कहां से आया। आख़िर मेरे बचपन में
मुझे क्या चाहिए था, याद क्यों नहीं!
और अब मुझे चाहिए क्या, मैं बता क्यों नहीं पाता।
क्या यही है, ख्वाइशों का मरना!-
कुछ स्त्रियों की सहेलियां नहीं होती,
वो भूल जाती हैं एक वक्त के बाद
ऐसा कोई रिश्ता भी होता है।
इसलिए शायद! उन्हें समझना
सरल नहीं रह जाता।
वहीं पुरूषों के कई दोस्त तो होते हैं,
पर नहीं मिलते उन्हें मौके पर,
न वो मिल पाते किसी से। इसलिए इन्हें
भी समझना सरल नहीं रह जाता।
ख़ुद में दोनों स्त्री–पुरुष खोजना चाहते हैं
दोनों को, पर फासला तय नहीं कर पाते,
और रहने लगते हैं अपने अपने जगहों पर
मौन और अकेले।
ऐसे में दोनों को समझना
सरल नहीं रह जाता।-
आख़िर चाहते हो क्या तुम!
इस सवाल से शुरू जिंदगी
इसी सवाल पे ख़त्म हो जायेगी।
ज़वाब फ़िर भी नहीं आयेगा,
सवाल ही रह जायेगा।-
बात सुनने से लेकर बात मानने
और समझने
तक का एक सफर होता है,
जो हर कोई नहीं
कर सकता।-
ज़मीन प्रकृति की,
बीज बोया जाने कौन,
पेड़ ने की छाया
सरकार ने एक दिन कटवाया,
किसी ने जलाया
तो कोई और खाया।
अब बताओ किसके हिस्से
पाप और
किसके हिस्से पुण्य आया।
सुनो! दिमाग चकरा जायेगा
ये खेल समझ नहीं आयेगा।
जिसने भी ये पहेली बनाया
उसने सदियों से मूर्ख बनाया।-
किसी ने किसी का दिल नहीं दुखाया जानिब!
सब अपने ही दिलें दर्द की तैयारी किए बैठे हैं।
इल्ज़ाम लगाकर ख़ुद को बेगुनाह बताते हैं,
यहां सब नकाब ओढ़े, भागते फिरे रहते हैं।
पूछो ज़रा दिल से किसकी हिमाकत इतनी!
ख़ुद ही खुद के सोच में जब कैद हुए बैठे हैं।
लाचारी! आवारगी नहीं होती दोस्तों!
बेवजह, सब आंसुओं के बेजार हुए बैठे है।
चाहिए क्या और क्या लिए बैठे हैं,
यहां सब कुछ का कुछ समझ और मांग लिए बैठे हैं।-
इंसान इसी भरोसे बैठा होता है कि
अपने आखिरी दिनों में वो सारे तीर्थ
करेगा और पूरा हिसाब कर्मों का कर देगा।-