_ हिमांशु   (अनुहिम)
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Joined 27 March 2020


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Joined 27 March 2020
YESTERDAY AT 18:10

एक वक्त के बाद हम सब, कहानियां, किस्से, शायरी और ग़ज़लें शेयर करना छोड़ देते हैं।
अपने तक जानें कितने अल्फ़ाज़ अब सीमित होकर वहीं कहीं दम तोड़ देते हैं।
सिलसिला बातों का चुप्पी में और चुप्पी
घुटन में अनगिनत यादों का गला भी घोट देते हैं।

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घर जानें कि जद्दोजहद नहीं बची
या ख़ुद ही भूल गए घर को।

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रोने की प्रक्रिया जटिल और सरल दोनों है,
ये निर्भर करता है हम किसे चुनते हैं।

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मैं, लिखूंगा, तो, हम, लिखूंगा,
हम में, मेरा और तुम्हारा होगा,
देखने वाले तुम्हारा ही देख पायेंगे,
मेरा सब अनदेखा कर जायेंगे।

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रोने के लिए बहाना खोजनें वाले लोग,
अक्सर देखे गए हैं रोते हुए, मंदिरों में
आरती के समय, सिनेमा देखते समय या
फिर किसी को रोते देखते समय।
उनका रोना अनायास तो नहीं होता,
वो भूलना नहीं चाहते हैं रोना।

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इत्तेफाक नहीं यही नियति है,
गांधी और रावण एक दूजे के पूरक हैं।

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15 SEP AT 23:45

हम सब जो हैं
वही बनना चाहते हैं।

जैसे शादी के बाद
पति नहीं बेटा बनना,
पत्नी नहीं बेटी रहना।

जो नहीं हैं वो बना जाता हैं,
जो हैं वो क्या बनना!

समाज यहीं विफल हैं
इसलिए शादियां।

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14 SEP AT 16:24

अंत में रह गया कहीं कोने में दबी वो बात,
और आँखों में कहीं कैद वो याद।

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डर है, दर्द बाहर न आए,
खुले जो कलम तो स्याह लिख जाए।
बात है भी और कुछ भी नहीं,
बात इतनी सी है, आख़िर! क्या क्या छुपाया जाए।
बिखरे हैं दोनों जहां, टूटे आईने हैं,
कहें भी तो कैसे अपना कहां नजर आए।
दर्द और दवा दोनों ही जुदा,
सब मैं और सब मेरा, भला मैं कैसे जाए।

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बहुत दूर आया थोड़ा करीब के लिए,
अब कुछ दिखता नहीं, रेत के सिवा।

फिसलता रहता हूं अब हर घड़ी,
कुछ उलझता नहीं, फंस कर गिरने के लिए।

नादान थे, हालत मैं खामोश कैसे रहूं,
बात ही तो हैं अब बात के लिए।

छाँव की तलाश में, पांव अब मुरझा गए
उठते ही नहीं, धंसने के सिवा।

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