जिम्मेदारियों की उधेड़-बुन में जिंदगी यूँही गुज़रती जा रहीं हैं जीवन के अनमोल पन्ने तो खाली है पर जेबें भरी जा रहीं हैं धड़कता है दिल ख्वाब पुरी करने को पर रूह मरी जा रहीं हैं दिल करता है कहीं दूर चला जाऊँ पर जिस्म ये नहीं मान रहीं हैं!!
अपनों की ख्वाइस पूरा करने को जीते हैं अपना दर्द अपने तक ही रखते हैं रोने का अधिकार भी इनसे छिन गया हैं खुद की पहचान बनाने को अपनों से ही दूर जाते हैं गलती किसी की भी हो हम मर्द जात को ही कुसूरवार ठहराते हैं
जैसे जैसे हम बड़े होते गए जिम्मेदारियां भी बढ़ती गई, "कल करूंगी! "यह सोचकर जिंदगी भी चली गई ! वक़्त युं दला कुछ पता न चला , कल की सोच बस एक सोच बनकर रह गई।