कैसी ये द्वंद है अंतर्मन से,
कि सही-गलत के उलझनों में उलझी रहती हूँ,
ख़ल्वत यूँहीं बैठ खुद से ही खुद की बातें करती हूँ।
ढ़ूँढ़ती हूँ अपने खोए कुछ टुकड़ों को,
कभी अमावस तो कभी चाँदनी रात में, पर कभी पा नहीं पाती हूँ।
कि भीड़ में भी मैं खुद की तलाश करती हूँ,
कभी हँसते तो कभी रोते चेहरे में मैं खुद को पाती हूँ।
गर कभी जो परेशां होना भूल जाती हूँ,
तो क्या खोया क्या पाया के तथ्यों से खुद को बहुत दूर पाती हूँ।
कभी खुद को सभी बंधनों से मुक्त, तो कभी उनमें ही जकड़ जाती हूँ।
ना जाने कैसी अंतर्द्वंद से गुजरती हूँ मैं,
कि कभी खुद की रिफ़ाक़त, तो कभी खुद को खराशें दे जाती हूँ।
हाँ... फिर कहीं मैं अपने अंतर्मन को समझाती हूँ,
कि यही तो जीवन है,
जो बकायदा द्वंदों में ही जी जाती है, जो संघर्षों में ही जी जाती है।।
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