समंदर-ए-इश्क़ में डूबने वाले कभी कम ना होंगे,
कश्ती होगी,किनारा होगा बस तुम और हम ना होंगे।
फ़िक्र तुमने बहुत करी हो चाहे जितनी सबकी ही,
परवाह करें जो ताउम्र वो जानेमन हरदम ना होंगे।
अग़राज़ हो जवाहिर की या चाहे आम पत्थर की,
जो चलते चलते थम जाएँ ऐसे ना मेरे क़दम होंगे।
तुम्हारे सारे ज़ुल्म-ओं-सितम हंस कर मैं सह जाऊँगी,
पूछने की ख़ता मत करना ज़ख़्म कैफ़ी-ओ-कम होंगे।
ज़ंजीरें भी नैमत लगेंगी और क़ैद भी जन्नत लगेगी,
आख़िर कब वो दिन होगा जब साथ क़ैद सनम होंगे।
अज़्ज़ियतें जो कम ना हुई तो ज़िद कैसे कम हो जाए,
दोबारा नहीं ऐसे शायर, और ना ही ऐसे क़लम होंगे।
आब-ओ-आतिश साथ रहें कब मुमकिन हो पाया है,
दरियादिलों के बिना कैसे , एक दैर-ओ-हरम होंगे।
अरमां रखो ज़िंदा दिल में किसी रोज़ हमारे मिलने का,
वो रात कितनी हसीं होगी जब एक फ़ज़्ल-ओ-करम होंगे।
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