हवा पानी बदलते थे और तबियत ठीक हो जाती थी।
अब दोनो में ही जहर है बताओ कौनसी मैं दवा करूं।
खुद की खिदमत में इंसान ने किया सितम जमाने में,
तुम्ही कहो मैं कैसे कुदरत का लुटता हक अदा करूं।
हाथ भी मसरूफ है आज अपनों की लाशे समेटने में,
कैसे फिर हाथ फैला कर, उस मालिक से दुआ करूं।
इमारतें बनाने की होड़ में, हमने पाट दिए जंगल सभी,
अब इलाज यही है कि, पेड़ पौधों से कुछ वफा करूं।
जानता हूं इन सबका इलाज न तो दवा है ना दुआ है,
चल हाथ बढ़ाकर हर घर का रोशन मैं दिया करूं।
कुदरत हमारी तरह नहीं हमें उसकी तरह चलना है,
यह सोच पैदा करूं ठीक जिंदगी का फलसफा करूं।
फिर न उसका कहर होगा खतरे में ना यह शहर होगा,
मैं इस जिंदगी से पहले उनकी जिंदगी पे सजदा करूं।
-