मैं शिव हूं, सब शिव है।
मैं सर्प हूं, सब सर्प हैं।
दसों दिशा मंथन है,
चित्त का चिंतन है।
कलयुग में सब अहम में मुग्ध है—
प्रेम अमृत्व विलुप्त है।
जहां निहारू, उमड़ा हलाहल है।
विष से पूर्ण विश्व में कोलाहल है।
अनायास ही, शिव बन मैं संबंध
बचाने के लिए, हालहल अपनी
हथेली में भर लेती हूं।
जो जितना विष उगलता है,
मैं कंठ में धर लेती हूं।
कंठ की मर्यादा में हर कड़वा वचन
सह लेती हूं।
कोष्ट तक खिसके जो,
न मृत्यु हो, वहीं कड़वी संरक्षित बात
सर्प सी कह देती हूं।
यह एक ही विष है जो
हर कंठ में वास करता है,
यह एक ही विष है जो
प्रेम का विनाश करता है।
इस विष को निगलने से
हम सब शिव बन जाते है,
इसे ही उगलदे तो
हम सब सर्प बन जाते है।
सृष्टि के संचालन के लिए,
शिव की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है,
मगर सर्प बिना भी शिव का अस्तित्व
कहां सम्पूर्ण है?
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