(नपुंसक विचार)
जब मैं अपने अतीत में घटित और भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं के बारे में नहीं सोचता हूं तब मैं सोचता हूं।
सड़क और पुल के नीचे रहने वाले उन बच्चों के बारे में जिनके कपडे़ इतने गंदे हैं मानो गंदगी अपने परिवार के साथ रहती हो और उन्हें उतना ही खाना मिला है जितना की वे ब्रह्म मुहर्त में जाग जाए ताकी सुन्दर शहर अपनी सुन्दरता का भ्रम बनाए रखे ।
ऐसा लगता हो मानो इस जंनतंत्र में उन्हें जन ही मानने से इंकार कर दिया है। क्या उन्हें पढ़ने और बचपन में बचपन जीने का अधिकार नहीं है?
राजनीति के उडन खटोले तो पुल के उपर से उड़ जाते हैं चुनाव की आँधी भी उन्हें नहीं ला पाती शायद इसलिए की उनके पिता किसी राजनैतिक दल के समर्थक नहीं है और ना ही वे जनरल, एस.टी., एस.सी. कैटेगरी में आते हैं। जहाँ राजनीति विश्राम करती है ।
लेकिन इसके समकक्ष क्या इस समाज में हमारे द्वारा प्राप्त की शिक्षा पर उन बच्चों का आंशिक अधिकार भी नहीं है क्या मैं उनका सामाजिक ऋणी नही हूँ?
लेकिन शर्म करने वाली बात तो ये है की ये विचार मुझे विचलित कर देते हैं, पागल क्यों नहीं कर देते, मुझ पर ज्वर की तरह छा क्यों नहीं जाते। सम्भवतः मैं भी राजनीति की तरह असंवेदनशील हूँ।
शायद ये मेरे नपुंसक विचार हैं।
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