किसी गेहूँ की चक्की की ही माफ़िक यारों! मेरी माशूका आज कल हो गई दिखती है! निकालती है बेदर्दी से, मेरे अरमानों का कचूमर, और साथ में बड़ी ही जोर-जोर से, वो चीखती है!!
कहते हैं सिमट गयी है दुनियाँ बढ़ती रफ़्तार के साथ नहीं होती है अब तो बड़े -बड़े शहरों में रात फिर भी मिल न पाया अपनों से! कहाँ -कहाँ नहीं ढूँढ़ा नींद भी तो नहीं आयी कितनी बार आँखें मूँदा! दुनियाँ सिमट गई और अपने हो गए दूर रातें नहीं होतीं है अब फिर भी अँधेरा है भरपूर! रफ़्तार के इस खेल में मैं कितनी दूर चला आया? देखता हूँ पीछे मुड़कर दिखता नहीं अपना भी साया. बहरा कर देने वाले शोर में खुद को सुनना मुश्किल है! अपने क्या ख़ाक दिखेंगे जब खुद को ढूँढना मुश्किल है!!
आज भी किताब-ए-ज़िन्दगी के पन्ने पलटता हूँ, तो बचपन के पन्ने पढ़ते ही आँखें हो जाती है नम। कितने अजीब थे वो दिन, कागज की कश्ती से दरिया फ़तेह करने का जज़्बा रखते थे हम।।
तू उसके साथ खुश है मुझे और क्या चाहिए प्यार नापना नहीं तेरे मजबूरी के रिश्ते का अब हसीं है तेरे चेहरे पे मुझे तस्सली हैं ये मेरा पूरा सच है ऐसी भी बात नहीं दिल तारो सा जलता हैं अब कोई रात नहीं