थोड़ा इन्तज़ार और सही
तीन घंटे से लंबी कतार में, बस ये कह कर आगे बढ़ती
कि थोड़ा इन्तज़ार और सही।
पर कोसते ज़ुबाँ सब्र को पहचानते नहीं।
कोई कहता- चुनाव में जुमलेबाजी करने वाले आज लापता है।
तो कोई कहता- अब अधिकारी हमारे हालात नहीं, जेब की गर्मी देखते है।
और दूसरी तरफ अधिकारियों का कहना था-
मौसम के ताप का शिकार हुए है हम
गर्मी जेब में नहीं, हमारे दुखते-जलते पैरों में है।
गली-गली जा कर, लोगों की तानों की आग में पहले दिल फिर बदन जला कर,
दौड़-भाग से पैरों तक झुलसते है और फिर जब घर लौटे
तो जलता हुआ बिस्तर आराम नहीं, बेचैन दौड़ती सोच देता है।
बरसात ने इस बार नाराज़गी दिखाई थी।
झरनों और सैलाब ने गुम होना बेहतर समझा।
अधिकारी बरसात की उम्मीद में डूबे थे
और आम जनता जल विभाग को कोसते रहते।
पर ग़लती किसकी है? क्या इल्ज़ाम थोपना इतना ज़रूरी है?
शिकायतों का अम्बार लगना वाजिब है।
पर आख़िर ये शिकायत है किससे?
काश! इन्तज़ाम ऐसे कर पाते अपने घरों पर
कि हर साल बरसात का थोड़ा सा पानी बचा लेते
तो आज न परेशानी होती, न शिकायत,
न इल्ज़ाम होते, न लम्बी कतार और न खाली बर्तनों संग इन्तज़ार।
आने वाला कल जब हमें बंजर कर जायेगा
तब किसे क़सूरवार ठहराएंगे, कुदरत से लड़ पाएंगे?
खैर! सोच के इस उथल-पुथल में जब मेरी बारी आयी
तो नल ने मुँह बन्द कर लिया और मैंने फिर ख़ुद से कहा- थोड़ा इन्तज़ार और सही। (गीतिका चलाल) @geetikachalal04
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