भीड़ में खो जाती हूँ, रात को सो जाती हूँ,
चिंता नहीं सवेरे की, शाम को रो जाती हूँ,
ख़ुद से ही परेशान हूँ, शायद मैं नादान हूँ,
धरती जो बंजर हुई, अब तो आसमान हूँ,
मेरा नहीं ठिकाना है, मैंने भी ना जाना है,
मेरी धारा बहती रही, सागर में समाना है,
आग यूँ लगी मन में, धुआँ सा उठा तन में,
जल गया ह्रदय भी, क्या रहा है जीवन में,
टूट कर जो टूटी हूँ, ख़ुद से ही तो रूठी हूँ,
शीशे की बोतल थी न, गिरी और फूटी हूँ,
हाल हुआ यूँ बेहाल, किसका है ये कमाल,
ज़िंदगी जो बिखरी, कि अब हुई है निहाल,
ख़ुद से दूर सही, पर किसीके तो क़रीब हूँ,
जानता है ज़माना, हाँ मैं थोड़ी अजीब हूँ !!
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