"श्रीराम चरितावली"
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जेई जौना गौरांगो भौजे, शेई होय अमार प्राण रे... read more
माँगा क्या और पाया क्या, कुछ भी नहीं,
मेरी क़िस्मत में आया क्या, कुछ भी नहीं,
चली लेकर जिसे मैं ये ज़िंदगी बनाने को,
उसने ही दाम लगाया क्या, कुछ भी नहीं,
बातें तो बहुत सी हुई थीं अश्क-ए-हर्फ़ से,
पर क्या सुना सुनाया क्या, कुछ भी नहीं,
खड़ी रही घण्टों मैं उस आईने के सामने,
उसने तो पर दिखाया क्या, कुछ भी नहीं,
कोई न रहा साथ सफ़र में तन्हा रह गए,
फिर क्या मेरा पराया क्या, कुछ भी नहीं,— % & सब कुछ तो छोड़ ही आए वीरान राहों में,
इब क्या तोड़ा बनाया क्या, कुछ भी नहीं,
मढ़ दिए गए वो सारे ही इल्ज़ाम मुझ पर,
कि क्या माना मनाया क्या, कुछ भी नहीं,
वो दो जून की रोटी तक तो नसीब न हुई,
इब क्या ख़र्चा कमाया क्या, कुछ भी नहीं,
कि हीरे जानकर पत्थर सँजो लिए 'चैतन्य',
यूँ क्या रखा ठुकराया क्या, कुछ भी नहीं!— % &-
जर्जर कश्ती सा बशर और मंज़िल बड़ी दूर है,
कैसे पार हो मझधार जब नाव को ही ग़ुरूर है,
कोई तो हमें बचा ले इस आने वाले तूफ़ान से,
कि इस तमाशे का अंत अब होना तो ज़रूर है,
ज़मीर जिनका महज़ दो टुकड़ों का भी नहीं,
और इज़्ज़त ख़ुद में उनकी वाला-ए-हुज़ूर है,
ज़हर का घूँट पीते-पीते ही कर रहा है गुज़ारा,
कि यहाँ पर हर शख़्स मर जाने को मजबूर है,
रंगमंच का हर इक क़िरदार तो कठपुतली है,
बस रह गया है नाम उसका और वो भी बेनूर है !— % &अँधेरे में चमकने को सितारा ही काफ़ी है,
जो साथ दे उम्र भर वो सहारा ही काफ़ी है,
क्यों मिलते हैं राहों में बात-चीत के मेहमाँ,
दूर तलक जाने को तो इशारा ही काफ़ी है,
जी दो पागलों में कब तक चलती है यारी,
दूसरे को कह देना घसियारा ही काफ़ी है,
कोई बंजर ज़मीं पर फूल खिलाने के लिए,
केवल और केवल नाम तुम्हारा काफ़ी है,
जीत ली दुनिया बस ना जीता ख़ुद को ही,
इब आगे बढ़ने को ये नाकारा ही काफ़ी है!— % &इस ज़िन्दगी के कुछ पन्ने तो ख़ाली हैं,
कुछ हक़ीक़त हैं और कुछ खयाली हैं,
हर वक़्त बदलते इन चेहरों की जंग में,
यहाँ आईने सच्चे और इंसान जाली हैं,
पाने की चाहत और खो देने के ग़म में,
कहीं पर सूखा है तो कहीं हरियाली है,
ना जाने कहाँ पहुँचने की दौड़-धूप में,
कहीं दिन सफ़ेद हैं कहीं शामें काली हैं,
मातम का माहौल छाया है इस घर में,
इब तो रोज़ पटाखे हैं, रोज़ दिवाली है !— % &-
तनहाइयों से नाता सरे आम बना रखा है,
हमने ख़ुद को इनका ग़ुलाम बना रखा है,
चाहे कितना भी दर्द देदे अब ये ज़िंदगी,
हमने दर्द को दवा का काम बना रखा है,
कुछ बरसों से उस कबूतर के इंतज़ार में,
हमने बेशुमार उनका पैग़ाम बना रखा है,
हज़ारों में यहाँ क़ीमत है जिस किसीकी,
हमने उसे कौड़ियों का दाम बना रखा है,
दिल बदलने से पहले के इक रिवाज़ में,
हमने घर बदलने का ईनाम बना रखा है,
मेहनत के चलते ही चल पड़ती हैं लाशें,
हमने उसे दिनों का आराम बना रखा है,
बस अब तो जो इस 'चैतन्या' को मंज़ूर है,
हमने उसे ज़िंदगी का मुक़ाम बना रखा है!— % &-