मनुष्यों को
प्रेम का मूल्य
समझाने के लिए
विधाता ने "प्रेम" के
साथ रची....
दो और रचनाएं
और उन्हें नाम दिया
"वेदना" और "वियोग" का-
तुम ईश्वर के जैसे ही हो!
शून्य में विलीन,
अदृश्य... अप्रकट।
मैं तप में लीन हूँ,
निश्चिंत हूँ...
अपनी ही प्रेम साधना में।
अब शरीर की इच्छा नहीं,
वियोग में तप कर
प्रेम वासनाओं के परे हो गया है।-
यदि प्रेम स्वर्ण है
तो वियोग अग्नि है...
वियोगी की व्यथा ही
प्रेम की सत्यता का
प्रमाण और परिमाण है!-
कभी कल्पना में
देखती हूँ मैं तुम्हें
किसी और के संग जाते हुए
सुखी जीवन बिताते हुए...
कुछ पल के लिए
मुस्कुराती हूँ
तुम्हें सुखी देखकर...
कुछ पल के लिए
अपनी व्यथा भूल जाती हूँ मैं।-
मनुष्य के समक्ष
अप्रकट रहना
चुना ईश्वर ने...
क्योंकि
संयोग की शक्ति से
उच्च है वियोग में भक्ति!-
इस धवल यामिनी में.. मैं एकाकी
संग.. चाँद.. गगन पे भ्रमण करूँ,
अब कौन सा स्वप्न तेरा अधिक प्रिय है
"प्रिय".. मैं किस तारक का वरण करूँ,
हर दिशा प्रेम की.. मन भरमाये
बिन तुझ कैसे जीवन भरण करूँ,
तठस्थ नयन.. मुंध के बैठा हूँ
बस असहाय सा.. तुझको स्मरण करूँ,
है बहुत ही आतुर ह्रदय का "राम" वियोग में
सोचे.. कैसे "सीता" ग्रहण करूँ,
और नहीं पास है.. रावण का वो मृग सोने का
जो निकट तुम्हारे.. विचरण करूँ,
बस मिलें प्रभु तो.. तुझको माँगूँ
मैं अबोध त्याग सब.. शरण पडूँ,
नहीं है युद्ध प्रेम का मेरे बस में
बस रोऊँ-धोऊँ.. चरण पडूँ,
इस धवल यामिनी में.. मैं एकाकी
संग.. चाँद.. गगन पे भर्मण करूँ..!-
अभाव ही भावों में
गहनता को जन्म देते हैं,
एहसास कराते हैं
'नहीं होकर' कि
'होना' कैसा होता होगा!
इसीलिए...
प्रेम में वियोग से
उत्तम कुछ भी नहीं!-
तुलना नहीं.. यह वास्तविकता है के...
यूँ तो पुरुषों को प्रेम.. स्त्री की अपेक्षा कम ही होता है..
पर जब होता है तो उसे अपने किसी भी भले बुरे का संज्ञान नहीं रहता...,
अक्सर प्रेम के शिखर पर बैठी स्त्री समतल पे बापस आना जानती है..
हाथ मिले तो वो निःसंकोच निःसंदेह लौट आती है...,
पर पुरुष... सहायता मिलने पर भी नहीं वापस उतर पाता..
औऱ उतर आता भी है तो...
...वो सतत बापस उसी शिखर पर चढ़ने की कोशिश करता है...,
कोमल ह्रदय का टूटना दुःखदायक है
पर कठोर ह्रदय का टूटना बहुत ह्रदय विदारक होता है..,
सुनों... तुम अगली बार किसी से प्रेम करो तो..
उसे निभाना जरूर...
सुना है के अर्थी पे फैंके दानों को परिंदे भी नहीं चुगते..!— % &-