आज भी जब .. साँझ ढलते ही बुझा दी जाती हैं
सरकारी बत्तियाँ
और मैं रोज़ की तरहा .. उसी सड़क पर अटक जाती हूँ
किसी गाड़ी में .. उसका पेट्रोल ख़त्म होने पर
देखती हूँ आस पास
दो लड़के पिछली सीट पर होते है .. मोबाइल में नज़रे गढ़ाए
ड्राइवर उतर चुका है गाड़ी से .. और जा टिका है पहाड़ी पर
तब मैं उतर जाती हूँ गाड़ी से
और खड़ी हो जाती हूँ .. खाई की मुंडेर पर
हर तरफ अँधेरा है .. रास्ता भी नहीं दिखता
दूर दूर तक कोई गाड़ी भी आती नहीं दिखती
मोबाइल का नेटवर्क भी पुराने ज़माने के कबूतरों सा है
पहाड़ों में धुंध भी उतरने लगी है .. दिल बर्फ़ की तरह जमने लगा है
ठंड गरम कपड़ों को भेद रोंगटे खड़े करती है
हवा की सांय सांय बेचैन कर देती है
और ख़ामोशी को चीरती नदियों का शोर
मुझे बुलाता है .. कि अब कोई चारा नहीं बचा
तीन जोड़ी आंखें .. तीन जोड़ी हाथ और तीन जोड़ी पैर
बढ़े तुम्हारे करीब .. उस से पहले
तुम पार करो मुंडेर और समा जाओ मुझ में
..
एक दम को सांस भर .. मैं उठाती हूँ पत्थर हाथों में
और अपनी चिंता और डर को .. फेंक देती हूँ बहती नदी में
..
इंतज़ार करती हूँ .. तुम्हारा
तुम आओगे .. ये जानती हूँ मैं।-
सफर मीलों का हो या चार कदमों का
उन्हें चलकर ही तय करना होता है....!!🚶-
सच जल्दी ही मर जाता है
झूठ की उम्र तो.. बड़ी लंबी होती है,
ज़नाब..., यूँ ही नहीं कोई अपनी जान लेता है
क़ातिल अपनें ही हैं यह.. वो पहचान लेता है,
...वरना कितना कुछ है जहाँ में
दिल बहलाने के लिये...
पऱ ज़िन्दगी तेरा दिल आया भी तो उसपे
जो नसीब में ना था...,
आख़िर किसी ने तो बुनें होंगे मौत के तानें-बानें
मैं यह कैसे मान लूँ के...
एक बेज़ान रस्सी ने "जान" ले ली!-
उदास ना हो मन मेरे... जाने दे
परिंदे तो हज़ार उड़ते हैं
पऱ यह ख़्वाबों का आसमां.. है किसी का नहीं,
मैंने देखा है बादलों का सफ़र भी
उनकी ख़्वाइशों का भी एक दायरा है
है मंजिल पे पहुँचता कारवाँ.. किसी का नहीं,
इक़ मिथ्या छायापथ सा है नयनों में
सब जल रहे हैं पराये मोहः की अग्नि में
है अपने लिए बहा अश्रु यहाँ.. किसी का नहीं,
इस ज़िन्दगी के चलचित्र को निहारता
इक़ तू ही नहीं है मूक दर्शक सा
तलाश जिस सुकूँ बख़्श की है.. वो है तलिस्मयी जहाँ... किसी का नहीं,
चल.. क़दम बड़ा.. मुस्कुरा
रख जिजीविषा मृत्यु पर्यन्त
आख़िर.. यह ख़ुदा भी है पासबाँ किसी का नहीं,
उदास ना हो मन मेरे... जाने दे ना!-
है छोटा सा ही सफ़र...
पऱ रस्ता बड़ा.. लंबा सा लगता है
उम्र.. यह कौन कुतर गया..
वक़्त.. पतंगा सा लगता है,
ख़्वाइशों की नदी में हम सीप ढूंढते रहे..
वहाँ साग़र साहिल पे.. कई मोती छोड़ गया
उफ़्फ़ है दौड़ अँधेरों में.. औऱ चाँद अंधा सा लगता है,
उम्र.. यह कौन कुतर गया.. वक़्त.. पतंगा सा लगता है,
आईने में इक़ जैसे.. हम प्रतिदिन नज़र आये
सूखे से कुएं में.. मिथ्य कई प्रतिबिम्ब नज़र आये..
फिऱ जीवन कब-कहाँ गुज़र गया...
....बस इक़ अचंभा सा लगता है,
मेरी उम्र यह कौन कुतर गया..
वक़्त पतंगा सा लगता है..!-
माना की सच्ची मित्रता आइने की तरह होती है।
सही-गलत बताकर इंसान को रास्ते दिखाती है।
मगर अक्सर मैने ये देखा है की कड़वी
सच्चाई बतानेपर आईनेके शीशे तुट जाते है।-
जल सा बह रहा हूँ मैं... जाने इस सफ़र का क्या अंजाम होगा
साग़र से मिलूँगा.. या पता नहीं.. यूँ ही सारा सफ़र तमाम होगा,
पता नहीं... यह स्वप्नों की नदी कहाँ ले जाएगी मुझे
जाने कितना लंबा... औऱ मेरी यह ख़्वाइशों का कारवाँ होगा,
मेरा दरवाज़ा खटखटाती हैं.. यह बारिश की बूंदें
हा.. हाहा.. जाने उसकी यादों को मुझसे... अब क्या काम होगा,
कमबख़्त.. सोचती हैं घर में सजी मछलियाँ परेशान सी
के उफ़्फ़.. बेजान पत्थरों को डूबकर भी कितना... आराम होगा,
"अ.. अशोक"... बड़े दिनों बाद... किसी ने पुकारा है मुझको
मैं भूल गया हूँ.. पऱ हाँ शायद.. यही मेरा नाम होगा,
जल सा बह रहा हूँ मैं..!!-
ज़िन्दगी में कितने सुखः ख़रीदे थे
क़भी.. धूप में तपे
क़भी बारिश में भीगे थे..,
जब प्राण चले अपने पथ पऱ
तब पीछे.. बस क़सीदे थे,
मनवा.. व्यर्थ ताउम्र टेड़ी चाल चले
बस.. ख़ाली ही आना-जाना है
यह दो रास्ते ही हैं.. सीधे से!!-