अब मुझे किसी बात का ख़सारा न रहा
उन पर वो इख़्तियार अब हमारा न रहा
किसी और की हो गई है यूँ मसर्रत उनकी
कि हमारी तबस्सुम का कोई सहारा न रहा
उन्हें महजबीं समझ निकला चाँद को लाने
मेरी कहकशाँ-ए-इश्क़ में कोई तारा न रहा
इतने दिन में जान ही लिए असरार उनके
ख़ुश-आमदीद उस दिल में गुज़ारा न रहा
कौन से शिर्क में शरीक हो गया 'आरिफ़'
बज़्म-ए-याराँ में एक दोस्त बेचारा न रहा-
बिक गए मेरे हर कादिम-ए-अशआर हाथोंहाथ ए जज्बात,
है आज भी मजलिश-ए-मसर्रत में दर्द के खरीददार बहुत।।-
मुत्तकिल-ए-तकलीफ से गर परेशां हो 'जज्बात' ,
क्यूँ न मजलिश-ए-मसर्रत से नया दर्द ख़रीदा जाये।।
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मसर्रत का नहीं गर तो ग़म का ही सही
हो रिश्ता कोई भी, रिश्ता होना चाहिए!-
कुछ मसर्रत लिख ख़ुदा मेरी कहानी में भी,
आ जाए नाम उसका मेरी कहानी में भी,
तीरगी के सफ़हे पलट सके ज़िन्दगी मेरी,
रौशनी का हो किस्सा मेरी कहानी में भी।-
तू मयस्सर है ए ज़िंदगी मेरे मुफ़लिसी में
नही तो मेरे पास खोने के लिऐ गम भी नही-
अगर इश्क़ करो तो अदब-ए-वफ़ा सीख लो,
यह चंद दिनों की बेकरारी मोहब्बत नहीं होती…
उनकी मुस्कुराहटें ही हमारे जीने का ज़रिया है,
वरना ये जिंदगी मसर्रत नहीं होती…-
यूँ तो सारे जंहा की मसर्रत को
दामन में समेटा है अपने,
मग़र मैंने कच्ची दीवारों की
सिसकियां सुनी हैं,
घावों को पसीज़ते देखा है।
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