अनिकेत हवाएं ठहर जरा
है शपथ प्रेम की यायावर।
भटके फिरते दिन रैन थके
चंचल मन बांधें हाथ पकड़।
बंजर बीहड़ निर्जन पीपल
वन उपवन छांव घनी शीतल।
नदिया सागर लहरें लांघे
अविकल चित कितना है परिमल।
(प्रीति)-
पुष्प का परिमल प्रवाही है
बँध न सकेगा तेरी बाहों में
दिक्- दिगंत में पसरेगा वह
सुगंध से सब को भर जाएगा !
हर सुमन का अपना सौरभ
सब का निज जीवन अपना है गौरव
तेरी इक्षाओं के अनुकूल न होगा
जो जो चाहे वो कर जाएगा !
देखो माली ध्यान धरो तुम
पुष्पों को अभी मुकुलित होना होगा
सोने दो आराम से इनको
उठ के हँसेंगे हँस-हँस के इनको खिलना होगा !
देवो के सिर चढ़ कर धन्य होगी
या फिर चिकुर में मुस्कायेगी
सुहागन के सेज की शोभा बनेगी
या वीरों के पथ में बिछ जाएगी !
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सानिध्य हेतु भूख प्यास सब खो रहे।
हर शाम शब्दमयी सुंदर मोती बो रहे,
प्रेम के परिमल यों पोषित हो रहे।
कभी अचानक अधर मुस्कराते,
कभी अचानक दोनों दृग रो रहे।-
बहुत तलाशा,
न खुद सा कोई पाया
तुममें दिखता है,
बहुत कुछ खुद सा---
होने लगी है आशा, हो रहा है विश्वास,
इसी उम्मीद के साथ सौंपती हूँ,
तुम्हे ये विचारों की---
सुगंधि का ये गुलाब,
न रखना इसे दबा किताबों में,
न दिल मे--,
पत्ती-पत्ती इसकी परिमल,
बिखरा देना हवाओं में,
मैं खुश हो जाऊंगी,
तुम्हे सौंपती हूँ, विचारों का ये गुलाब.-