नहीं नींद आएगी रातों को तुमको
जलन रातों को तो जगाए रखेगी-
समझा नहीं कभी वो शिद्दत-ए-प्यार मेरा
सच मानता नहीं है उल्फ़त को यार मेरा
छेड़ा है तार दिल का मिज़राब हाथ उसके
गाने लगा है नगमा दिल का सितार मेरा
आज़ार का नहीं है एहसास कोई मुझको
आराम देता दिल को वो ग़म-ग़ुसार मेरा
मुँह-ज़ोर लगता मेरा दिलदार क्या करूँ मैं
रूठा रहा है करता जान-ए-बहार मेरा
उल्फ़त बुलंद उजला लगता मुझे हिमालय
ऊंचा जहान में है इश्क़-ए-मयार मेरा-
खोल खिड़की ज़रा आये ताज़ी हवा
बंद कमरा यहाँ घुट रहा दम मेरा
आँसुओं के सिवा कुछ नहीं है मिला
दर्द समझा नहीं कोई मेरे ख़ुदा
अजनबी लोग हैं ख़ौफ से दिल भरा
ज़िंदगी से रहा कुछ नहीं है गिला
साथ देता नहीं कोई भी है यहाँ
साथी अपना कहाँ दहर सारा भरा
आज आकाश में कोई तारा नहीं
आसमां पर घना अब्र छाया रहा
जुगनुओं का यहाँ है नहीं काफिला
दिख रहा आगे काला यहाँ रास्ता
रोशनी का न इमकान है "जीत" अब
तीरगी का यहाँ चल रहा सिलसिला-
मोहब्बत छुपाए नहीं छुप सकेगी
कि मुस्की हमेशा लबों पे तुम्हारे-
रिश्तों की डोर कमज़ोर है
आज ज़िल्लत ही हर ओर है
कितने उलझे से संबन्ध ये
दुख का मेरे नहीं छोर है
लूटा जो कारवाँ है मेरा
हर गली शहर में शोर है
सूर्य छुप है गया क्या करूँ
तीरगी है ,नहीं भोर है
आंसुओं से भरी आँखें हैं
छाया फिर अब्र घनघोर है
"जीत"कर्मों का फल है तेरे
पाप लगता किया घोर है-
किसी काम की रह गयी मैं नहीं
जो मधुमास देखे कली मैं नहीं
हँसी ज़िंदगी से नदारद मेरी
खिला सब चमन पर खिली मैं नहीं
मिला ग़म ही साथी हमेशा मुझे
रही खुश कभी ज़िंदगी मैं नहीं
मेरी बातें अच्छी नहीं लगती हैं
सो ख़ामोश हूँ बोलती मैं नहीं
न पूरी हुई कोई चाहत मेरी
किसी को भी अब चाहती मैं नहीं
झुकी शर्म से "जीत"आँखें मेरी
नज़र को उठा देखती मैं नहीं-
कौन जाने रात क्यों ख़ामोश है
मय का प्याला पी पड़ा बेहोश है
कोई पद के मद में कोई धन के है
होश में कोई नहीं मदहोश है
कत्ल अपना हाथों से ख़ुद कर रहे
होश में कोई न खाली जोश है
कोई पहलू में नहीं बैठा मेरे
शब है सूनी सूना सा आग़ोश है
सीखना चलना कछुए से यहाँ
हारते बाज़ी सभी खरगोश है
वक्त जैसा भी हो मरते यीशु है
सूली पे चढ़ते यहाँ निर्दोश है-
शरीक कर लो मुझको भी हयात में सनम अभी
कहीं ख़राब हो न जाए ये हसीन ज़िन्दगी-
रोशनी को हम सवेरे ही थे निकले
घर से अपने तो अकेले ही थे निकले
ख़ूब था आराम जो सोए हुए थे
हम वहाँ से मन को मारे ही थे निकले
तेरा कूचा तीरगी में मुब्तला था
साथ देने को सितारे ही थे निकले
पल रहे थे आस्तां में साँप सारे
दोस्त जहरीले सपोले ही थे निकले
मारने वाला नहीं था गैर कोई
मेरा क़ातिल मेरे अपने ही थे निकले-
ज़र-ए-गुल उड़ाने लगीं हैं हवाएं
चमन को सजाने लगीं हैं हवाएं
बदन छू के तेरा चली आ रहीं हैं
महक ले के आने लगीं हैं हवाएं
जमीं का ये सीना बहुत जल रहा है
कि बादल को लाने लगीं हैं हवाएं
बर्ग -ए-गुल न सूखे यहाँ चाहिए अब
कि पत्तें गिराने लगीं हैं हवाएं
कहीं दूर बैठा वो सुनता नहीं हैं
नदा ले के जाने लगीं हैं हवाएं
कि बदलाव ही रीत है ज़िन्दगी की
नई रुत को लाने लगीं हैं हवाएं-