जितेंद्र नाथ श्रीवास्तव   (जितेंद्र नाथ श्रीवास्तव)
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Joined 28 February 2018


Joined 28 February 2018

प्यार बिना सब सूना सूना
भाये मन को और कछू ना

अब न सही जाती है दूरी 
जीवन में कैसी मज़बूरी 
चैन पाये मन ये कभू ना

बेखबर ज़िन्दगी से मेरे 
ख़ामोशी मुझको है घेरे 
पूछे दिल का हाल कभू ना

रोशन जीवन जो तू आये 
रस्ता आके तू दिखलाये 
साथ में तेरे मैं डरू ना 

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ये ज़िन्दगी जैसे लगती एक पहेली है 
हो के विदा अँगना आई जैसे नवेली है 

हँसती भी हँसाती भी रोती भी रुलाती भी 
जीवन जिसे हो कहते सुख दुख की सहेली है 

कमरा है मेरा खाली कोई न यहाँ आये 
सुनसान पड़ी कब से कैसी ये हवेली है 

पतझड़ सहा है करती लाती है बहारे भी 
महके कभी बन चम्पा जूही ओ चमेली है 

कुछ काम नहीं आया जोड़ा किया जीवन भर
जाता हूँ मैं मेरी खाली आज हथेली है

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रात को कल गुज़र गया गोबर 
बिन दवाई के मर गया गोबर 

चीज़ कितनी बुरी ग़रीबी है 
थू थू करते ज़िधर गया गोबर 

हो गयी विधवा क्या करे धनिया 
माँग सूनी है कर गया गोबर 

बेटियाँ दो है एक बेटा है 
जीस्त बरबाद कर गया गोबर 

भूक से पेट के रहा मरता 
घर को गिरवी भी धर गया गोबर 

दूर तक है नहीं निशाँ उसका 
शाख से जैसे झर गया गोबर 

डाल तुलसी दिया था मुख उसके 
लोग कहते है तर गया गोबर 

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आलमारी में मेरे ख़त आज भी है 
दिल में मेरे बाक़ी उल्फ़त आज भी है 

भूल पाता हूँ नहीं मैं बातें तेरी 
याद में मन ये मेरा रत आज भी है

ये खज़ाना कम नहीं होता कभी भी 
प्रेम की ये पास दौलत आज भी है 

प्यार करने वालों का है मिलना मुश्किल 
वस्ल की ज़िंदा वो हसरत आज भी है 

प्रेम सच्चा है तिरा पाहन सा ऊँचा 
इश्क़ में तेरे जबीँ नत आज भी है 

लूत लत जाती नहीं है मेरे भाई 
देखना चाहूँ पड़ी लत आज भी है 

बीतते है साल बीते दिन महीने 
प्यार है मेरा अमर सत आज भी है

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दिलदार सुन बला की है खूबसूरती ये 
आँखों को मोह लेती उड़ती सी फुलझड़ी ये 

कोई नहीं बताये किस लोक से है आयी
ये मोम की है गुड़िया कैसी है मूरती ये

ये चेतना तेरी है ये साथ में तेरे है 
मुँह से न बोले कुछ भी सब कुछ है देखती ये 

दिल है जलाना पड़ता जग भूल जाना पड़ता 
उल्फ़त नहीं ये खेला उल्फ़त न दिल्लगी ये 

ये आत्मा तुम्हारी जैसे हो कोई साया 
हाँ साथ ये न छोड़े सुख दुःख में कभी ये

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रात दिन मुझको तेरी ही आरजू है 
रूप  ऐसा  तो  नहीं  देखा कभू है 

फूल कागज़ के यहाँ पे खूब मिलते 
दहर  में  ऐसा  न  कोई  हू  ब  हू है

बाँटता है प्यार कोई भी नहीं अब 
आदमी ही आदमी का क्यूँ अदू है 

हो  रहम दिल  जानता है दहर सारा 
कहते बनता अब नहीं मुँह से कछू है 

कृष्ण बन के लाज आते हो बचाने 
नाज़नीनों  का  तू ही तो आबरू है 

आइना में दिल के रहता है कहे सब 
आँखों से दिखता नहीं पर रूबरू है 

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लाल है रँग ख़ून का हम दोनों का ही 
गैर कैसे मैं कहूँ मेरा लहू है

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ये चोट जो लगी है जज़्बात मर गया है 
ज़िंदा नहीं ये होगा ये कब का मर चुका है

सुनता नहीं ख़ुदा भी अब बात को हमारी 
फरियाद सुन तू मेरी दिल रंज से भरा है 

सारे तबीब हारे हम क्या करे बताओ 
मरहम न काम आया ये ज़ख्म भी हरा है 

पामाल हो गया हूँ बरबाद हो गया हूँ 
क्यूँ बेवफा हमारा दिलदार हो गया है

दरवाजा खोल देना बेताब हो गया हूँ 
कब से तुम्हारे दर पे ये दिल-जला खड़ा है 

अब "जीत "पूछने भी कोई न पास आये 
हो खाक़ मैं गया हूँ मैं इश्क़ में जला हूँ 

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लगाते आग वतन में वे घर जलाते है 
बड़े  अजीब  है  रहबर  हमें सताते है 

लगा के आग वे सेंका करे हथेली को 
जगाते है वे शरर को जलन बढ़ाते है

ख़ुदा न माफ़ करेगा मिलेगा दोज़ख ही 
भला  ये लोग  है कैसे  चमन जलाते है

ग़रीबी की नहीं बातें कभी किया करते 
फरेबी लोग है सपनें हमें दिखाते है 

सराय है ये ज़माना नहीं है घर कोई 
यहाँ पे आये है जो भी वे लौट जाते है 
1212   1122 1212  22

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स्कूल की यादें जगी मन आज मेरे 
भर गये गुल से है दामन आज मेरे 

कितने अच्छे थे गुरूकुल के विगत दिन 
हो गये मन कितने पावन आज मेरे 

मन में मेरे आई हरियाली को देखों 
बरसा आँगन में आ सावन आज मेरे 

दोस्त से प्यारा नहीं कोई यहाँ पर 
सामने है आ गया धन आज मेरे 

दिन सुहाने आये हँस लो तुम हँसा लो 
हाथ कैसे आया बचपन आज मेरे

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