जितेंद्र नाथ श्रीवास्तव   (जितेंद्र नाथ श्रीवास्तव)
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Joined 28 February 2018


Joined 28 February 2018

अजी पहली नज़र का प्यार है मेरा 
हसीं लगता बहुत दिलदार है मेरा 

नहीं जाओ कहीं भी दूर आँखों से
रखूँगा दिल में ये इकरार है मेरा

ख़ुशी जीवन में आयी है बहारें है
तुम्हारे दम से ये संसार है मेरा

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लहराता तिमिर का सागर है 
घर मन में बना बैठा डर है 

अब दर्द नहीं कम होता है
पागल मन मेरा रोता है
रहती हरदम आँखें तर है

अब उड़ना नहीं संभव लगता 
भारी मुझको है भव लगता 
आशा के कटे मेरे पर है 

माटी की बनी दीवारें हैं 
अगणित जिसमें पड़ी दरारें हैं 
बालू पे कैसे खड़ा घर है

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रहते है अँधेरे में गुमनामी में जीते है
आँसू ओ गिर्या आहें आये मेरे हिस्से है

मरहम न लगाता कोई देता न दवा कोई
कोई न मुझे चाहे करता न दुआ कोई
ज़ख्मी ज़िगर को अपने ही हाथों से सीते है 

होता न दर्द कम है रह रह के टीस उठती
मैं पीर सह न पाऊँ रुक रुक के कसक उठती
ग़म तेरा भुलाने को हम आब को पीते है 

उजड़ा चमन सा लगता है ज़िन्दगी हमारी
लगता है रूठ बैठी मुझसे बाद ए बहारी
सूने बहुत है लगते जीवन के जो खित्ते है

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तुम्हारी दीद मैं चाहूँ रगों में इश्क़ है मेरे 
बहा आँसू रहा हूँ मैं गमों में इश्क़ है मेरे 

लिखा है खून से इसको इसे स्याही नहीं समझो
पढो तू लफ़्ज़ को मेरे खतों में इश्क़ है मेरे 

भँवर हैं दौड़ के आते हुए दीवाने है गुल के
महक हैं फैलती इसकी गुलों में इश्क़ है मेरे 

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मेहनत और मज़दूरी ज़िन्दगी सँवार देंगी 
जीवन के आकाश को एक नया विस्तार देंगी

सूरज सा दमकेगा मेहनत का पसीना 
हर अँधेरे में दिखेंगा उम्मीद का सफ़ीना
हर सुब्ह लाएगी सपनों का नगीना
बुझते चिरागों को फिर से निखार देंगी

जीवन के तपती राहों पे शीतल फुहार देंगी
दुःख को हरेंगी खुशियाँ अपार देंगी 
संघर्ष की रातों को नई एक भोर देंगी 
फूल सुंदर सुंदर चुन के मन को बहार देंगी 

ठोकरों को मोड़ कर सीढ़ियाँ तैयार देंगी
मेहनत की मिट्टी को सोने का प्यार देंगी
ज़िन्दगी को तेरी इक नयी पहचान देंगी
कायनात खुशियाँ देखना हज़ार देंगी

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मेहनत से क्यों आँखें चुराना 
हार के मन को बैठ न जाना 

जीत और हार लगी रहती है
ज़िन्दगी ऐसे ही चलती है
जीवन में फिर पछताना क्या
व्यर्थ में क्यूँ कर आँसू बहाना 

जो गिर गिर कर के उठता है
दीपक बन के जो जलता है
करता है जो दूर तिमिर को
पूजता है उसको ही ज़माना 

मंज़िल की जानिब बढ़ते जाना
सहना दर्द मगर मुस्काना
धीरज रखना मत घबराना
नहीं पाँव के छालों को दिखाना

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मेहनत-मज़दूरी से क्यों आँखें चुराना, 
श्रम के साधन में क्या शर्माना? 

जो करना है कल, उसे आज ही कर, 
चल बढ़ सोच-समझ, न हो बेख़बर।

मुश्किलें तो आएँगी, ये बात जान, 
पर आंख न लाल कर, न हो हैरान।

काम से भागना नहीं, न बहाना बना, 
पाँव में छाले सही, पर मन को न थका।

छाँव की चाह न कर, जब धूप ही सच्ची है, 
रास्ता लंबा सही, पर राह भी अपनी है। 

गाँव की याद सताएगी, ये सच है मगर, 
बुलंदी चाहिए तो बहा पसीना हर पहर।

गुहर निकाल ला, डूबकर नदी में, 
सफलता छुपी है तेरी ही सादगी में। 

दिखावे से दूर, सिख ले सीधा रहना, 
मंज़िलें मिलेंगी, बस चलना न बहकना।

एक दिन ये ज़माना गाएगा तराना, 
तेरे ही नाम का होगा हर फ़साना

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तन्हा रास्तों में बस ख्याल है तुम्हारा 
कोई नहीं पूछता हाल है हमारा 

चाँदनी जैसा नर्म बदन है
तेरा ये पैकर लगता चमन है
नज़र उठा के तुम्हें देखता हूँ
हिमालय से ऊँचा भाल है तुम्हारा

ज़ख्म कैसा तूने क़ातिल दिया है
आँखों के तीर से घायल किया है
दिल तेरा हो गया ज़ख्म हमारे
मेरे क़ातिल ये कमाल है तुम्हारा 

गुलों में नहीं है महक तेरी जैसी
नहीं चिड़ियों में चहक तेरी जैसी
मिसाल न कोई है तेरे शबाब का
हर सूरत से आला जमाल है तुम्हारा

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नहीं कुछ फ़र्क पड़ता है, यहाँ पे खेला है जारी
यहाँ टिकते वही हैं जो बने रहते है दरबारी

नहीं फ़ाइल निपटती दफ़्तरों में साल-ओ दर-साल
बनी रहती यहाँ चर्चा व्यवस्था है ये सरकारी

जवाँ बैठे हैं बेकारों की बस्ती में निठल्ले बन
कहें किससे कि बढ़ती जा रही है आज बेकारी

सिपाही के हैं पद ख़ाली, न भर्ती की कोई सुध है
करेगा कौन ऐसे में बता सरहद की रखवारी

ये सर पे भूत बन बैठे उतारे से नहीं उतरे
बिठाया व्यर्थ माथे पर समझ अपनी गयी मारी

हमी ने अपनी किस्मत को मिटाया है इन हाथों से
भटकते अंधेरें में हैं दिखा दो राह बनवारी

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बस खेल जिस्म का है ये आशिक़ी तुम्हारी
बेकार मुझको लगती है दिल्लगी तुम्हारी 

हँसना हँसाना सीखो छोड़ो ये रोना धोना
कितनी हसीन नेमत है ज़िन्दगी तुम्हारी 

ये सूट बूट सारे दो चार दिन के ज़लवे
मरने के बाद रहती नेकी बदी तुम्हारी 

पैकर बशर का फानी साँसे दो पल का मेहमाँ
देगी न साथ सचमुच ये रूह भी तुम्हारी

ये लूट का खज़ाना सारा यहीं रहेगा
बस "जीत" काम आयेगी बन्दगी तुम्हारी

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