तेरे युगल अंबक का चुम्बन आज मेरे वपु को स्पर्श कर निकला,
मन की दहलीज को जैसे प्यार के अहसास का आंगन छू निकला।
नहीं विशेष आह्लाद, फिर भी मन उन्मादित कलरव कर निकला,
तन दमक उठा कुंदन सा ,तेरी सांसों का चंदन होले से छू निकला।
अलग हथेली पर किस्मत का लेखा जोखा एक अर्थ बन निकला,
हुए समर्पित हम यूं ऐसे ,ज्यों प्राणों को पूजन-तर्पण छू निकला।
अनुष्ठान सा स्पर्श तुम्हारा,पाषाण मूरत को देवी तुल्य कर निकला,
विरह से जलते हुए हृदय कानन को जैसे कोई सावन छू निकला।
समर्पण और प्रेम की इस अमर कथा में हर किरदार में तू निकला,
अनुराग से नियंत्रित हर श्वास,जीवित कर नई स्फूर्ति दे निकला।
तुम्हारे कोमल आलिंगन में हृदयगर्भ बसा प्रेम स्रोत बह निकला
प्रेम का मधुर संगीत, मेरे हृदय का अनहद निनाद बन निकला।
धारा सी शांत तेरी दृष्टि, सरिता को रेगिस्तान स्पर्श कर निकला,
उषा की पहली किरण बन, अंधकार की चादर को उधेड़ निकला।
चिर-प्रतीक्षा हो संपूर्ण, निश्छल प्रेम से कोई याचना कर निकला,
कंठ में भर अमृत की धारा, मधुर स्पर्श से मन मोहित कर निकला।
प्रेम निवेदन की ऊर्जा से नेह,रोम रोम से प्रस्फुरित हो बह निकला
दिल के कोने में छिपी आरज़ू, चुपके से कोई अरमान बन निकला।
ऋत्विज़ा-
सदा प्रेम तुम्हे, 💓 न क्षणभर की सिर्फ अभिलाषा,
वरन् चिरंतन आत्मिक संलयन की है ये तो भाषा।
तुम्ही में प्रारंभ, तुम्ही में समापन की संपूर्ण है गाथा
प्रेम की प्रेमार्द्र धारा को नहीं बांध पाती परिभाषा।
सदा प्रेम तुम्हे💓 न केवल मिलन की तुझसे कल्पना,
वरन् हर वियोग में भी सदा रहा तेरा आश्रयालंबन।
तू सन्निकट या दूर क्षितिज पे रहे अविच्छिन्न सातत्य
मन का प्रत्येक स्पंदन तुझसे ही जीवंत अनुप्राणितl।
सदा प्रेम तुम्हे 💓तुम सुखद स्मृतियों की हो संजीवनी,
तुझसे जुड़ी उद्भूत हर पीड़ा भी है अमृत सुमधुर रव।
अविद्यमान तू पर आभास नित्य विह्वल उर में संचित,
अनुपलब्ध तू है व्याप्त,सदृश सुवास अछिन्न निहित।
सदा प्रेम तुम्हे 💓न तृष्णा, आकांक्षा किसी फल की,
वरन् सम्पूर्ण समर्पण की ये निर्विकल्प, आत्मार्पण।
न याचना, न शिकायत, न कोई अपेक्षा का है बंधन,
बस तुझमें ही तृप्त, तुझमें ही पूर्ण है हर अभिवंदन।
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माता पिता की तरह
निश्छल प्रेम है उसका,
ये यकीन आज कही
आसूओं में बहते मिला।-
'एक पवित्र स्त्री का निश्छल प्रेम'
एक 'स्त्री' जब किसी पुरूष पर प्रेम जताती है।
अपने मनमंदिर में उसकी एक तस्वीर लगाती हैं।1।
भुला कर निज स्वार्थ उस पर सर्वस्व लुटाती है।
मस्तिष्क से परे चित की ही वाणी सुनी जाती है।2।
न आता है कभी उसके मन में कोई छल, द्वेष, ईर्ष्या
व कपट वो तो केवल प्रेम धुन में रम कर रह जाती है।3।
मन में उमड़ता हैं जब कभी निश्छल प्रेम का सागर
सारी योजनाएं व कृतियाँ धरी की धरी रह जाती हैं।4।
विचलित रहता है बावरा मन, मनमीत के मिलन को,
सांझ हो या निशा मन में प्रेममयी योजनाएं गोते खाती हैं।5।
'आत्मिक प्रेम' की लीला अपरम्पार हैं सबको समझ कहाँ
आती हैं, जिनको आती है पवित्रता ह्रदय में घर कर जाती हैं।6।
भाग्यशाली होते है वो जिनके भाग्य में ऐसी प्रेमिका होती हैं।
ऐसी स्त्री एक चरित्रवान को ही प्राप्त होती हैं, उपहार दी जाती हैं।7।
जीवन में सभी कार्य करने चाहिए 'अभि' किंतु निःस्वार्थ
भाव से प्रेम करने वाली स्त्री का ह्रदय मत व्यथित करना, 8।
ये ऐसी देवियाँ होती हैं जिनकी चित्कार परमात्मा तक पहुँच जाती हैं
व इनकी आत्मिकता आपको यमराज के घर से भी लौटा लाती हैं।9।-
वे प्रेम बन
लिखते हैं कविता
अपनी राधा
को सोच कर,
मैं मीरा बन 'उन्हें'
ही गुनगुनाती हूँ,
अपना 'कान्हा'
समझ कर-
"पहली सांस भरी
थी जब इस दुनिया
में तब मेरे सबसे
ज्यादा करीब तुम
ही थी मां, बस मेरे
उतना ही करीब रहना
मां अंतिम सांस के वक्त में!"-
समझदारों की भीड़ में,
कुछ नादाँ मिल गए,
प्यार की नन्ही बाँहों में,
भगवान मिल गए..-