रिश्तों में कभी जंग नहीं लगती
लेकिन जंग न लग जाये के डर से
बारिश में भीगना ही नहीं
वाली सोच से
रिश्ते धूल हो जाते है
दूर तक फैले रेगिस्तान की तरह
जहाँ फिर कुछ नहीं निपजता
फिर कितनी भी बारिश क्यूँ न हो
और
रिश्तों में पसरने लगती है
ख़ामोशी की नागफ़नी
जो बींध देती है
रिश्तों के होने के मानी-
तेरी ख़ामोशी का बादल,
जब से छाया है दिल पर मेरे,
रोशनी के इक कतरे को भी,
तड़प रहा है दिल मेरा...
सुध-बुध खो कर लेटे-लेटे,
बिस्तर पर ये, बे-ज़ान सा,
हर लम्हा फिर याद करे,
उन यादों का ये दिल मेरा...-
रात की ख़ामोशी में ये दर्द गूँजता रहता है इनकी आवाजों से पल पल मेरा दिल टूट के बिखरता रहता है अब इसको संभालना बेहद विकट प्रतित हो रहा इस रात की गहराईयों में ये दर्द और भी गहरा हो रहा है
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प्रेम आता है,
"सुनाई" न देने वाली,
खामोशी के साथ।
प्रेम जाता है,
"बहरा" कर देने वाली,
खामोशी के साथ।-
अल्फाज़ को रखा है हमने इश्क़ के हिफाज़त में
खामोशी लापरवाह हैं अक्सर रिश्ते खो देतीं हैं...-
वो जो बैठा था बरसों से गहरी उदासी लिये
मुझ पर ही सही, उसका हँसना अच्छा लगा-
खामोशियाँ खलती है यें, शोर भी भाता नहीं
बात करें तो किससे करे,
किताबों सा कोई बतियाता नहीं
ना बनाओ ताज मोहब्बत में, फना होने का इरादा भी नहीं
मुझे जीना है सदा के लिए,
लिख दो किसी कविता में कहीं-
अभी ज़ाहिर हो तो फिक्रमंद भी बेअदब है
हर परत कुरेदी जाएगी जिस पल राज़ हो जाओगे-
हर लम्हा वक्त का खाली हैं,और
मैं अब सिर्फ सन्नाटे बुनती हूं ...
थकी हुई गहरी रात, खामोशी से पूंछती हूं
मैं क्यूं सिर्फ पतझड़ के फूलों को चुनती हूं ...?-
'छू' न पायेगा कोई
अंतस की वेदना को
प्रमाण ही संकल्प है
'मन' की सिद्धि का
उपस्थिति 'स्वीकार्य'
आपत्ति 'निषेध'
'मैं' निरीह मेरा
तेरे 'मैं' के आगे
कुछ तो है
मन की 'परिधि' में
'आकार' का तो माप है
'प्रकार' का नहीं
'खामोशी' है...सब जानती है!
अल्फाजों में तो किस्से
कुछ और ही
'बयां' होते है-