शुक्रवार-सी बोरिंग लाइफ़ में
शनिवार-सी रात हो तुम...-
सर्दी का आलम भी क्या बताएँ जनाब,
शब्द भी देखो ऐसे जमने लगे हैं
जैसे जम रहा नारियल का तेल
मानो उसे भी तलाश है एक सूरज की,
जो भर दे हृदय में अपार ऊष्मा
और अपनी आँच से पिघला दे
उन ठसे हुए शब्दों को जो कि जम गये।
उन्हें चाहिए एक भीतरी ताप
जो व्याकुल होकर बैठे कब से
एक प्रतीक्षा में घुलनशील बनने के लिए,
जिससे निकले सार्थक शब्द
जो समाप्त करे सूखेपन को
जो मन-मस्तिष्क को ज्ञान से तरल कर दे,
उपयोगी बन जाए हर शब्द
सम्पूर्ण सृष्टि के हित के लिए।-
त्रिशूलधारी, त्रिपुरारि
त्रिलोचन , त्रिलोकेश।
भस्म-प्रिय,भवानीप्रिय
भूतभर्ता, भवभंजन।
जटाधारी, जगदंदक
जगतपिता, जगतारण।
मस्तकविराजे,मंदाकिनी
महेशानी प्रिय, महेश्वर
मदनरिपु , महादेव
मृत्युंजय, महाकालेश्वर।
पशुपति, पार्वतीपति
पिनाकी, परमश्रेष्ठ।
शिव, शम्भू, शंकर
शिपिविष्ट , शाश्वत।
अहिधारी , आशुतोष
अंबाप्रिय,अपर्णाभर्ता।-
शायद मुझे कविता लिखनी नहीं आई
या कविता में तुझे लिखना नहीं आया
दर्द ही दर्द है मेरे सीने में लाखों मगर
शायद उस दर्द को लिखना नहीं आया।-
'अल्पज्ञ'ये बुझे दीये फिर कब जले हैं।
जो बिछड़ जाएँ वो फिर कब मिले हैं।-
आस्तित्व पर कितनी
खरोंचें आती हैं ,
तब जाकर इंसान में
समझदारी आती है....-
जो रंगा हैं सिर से पाँव तक गुनाहों के रंग में
वो कह रहा है 'शून्य' का दामन उजला नहीं रहा।-
"मेरी नज़रों से गिरने के बाद
अक्सर लोग मुझे दिखाई नहीं देते हैं
क्योंकि धूल देखकर चलना
मेरी आदत नहीं है"।।-