मौन थे सब
अल्फाज़ बिक रहे थे
तन्हाइयों के बाज़ार में
ग़म ही ग़म दिख रहे थे
चेहरों की भीड़ में
इंसान कम दिख रहे थे
वीरानियों से
गुलज़ार थी महफिलें
दिल सबके नम दिख रहे थे
नज़दीकियों के गलियारे
हर तरफ़ तंग दिख रहे थे
दूरियां पसरी थी फिज़ाओं में
हकीकतों के आसमान में
व्याकुल से हसरतों के सारे
विहंग दिख रहे थे
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विहंग(पंछी)
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15 APR 2021 AT 10:42
17 FEB 2020 AT 0:27
गुलाबी इच्छाएं पीली उम्मीदें
सूर्ख लाल सुहागन स्वप्न
जब होली आता है प्रियवर
करती हूँ मैं प्रयत्न
नीला पीला हरा बैंगनी
रंग मिला अनेक
रंग लेती हूँ मेरा दुपट्टा
समझ के तुमको एक
ओढ़ तुम्हें जब जाती हूँ
सब सखियों के बीच
डाह से जल जाती हैं सब
दांत को भींच भींच-
28 JAN 2022 AT 8:45
कल्पनाओं की हक़ीक़त
कुछ भी नहीं
ये महज़ इक भ्रम है
ख्वाहिशों से हरपल
विचलित होती ज़िंदगी
पिंजरे में क़ैद विहंग है
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विहंग (पंछी)— % &-
21 FEB 2019 AT 13:08
जब कोई मातृभाषा में बोले,
यूँ फिर लगे...
निर्मल सरिता निर्मम मन को
विहंग-छंद से कोमल करती।
और लगे कि
पाहन तन पर
जैसे नेहामय दूर्वा चंचल चलती।
सिथिल जीव को हो कोई
राग-किवाड़ी सुनाने वाला।
अनुभूति ऐसी ऊर्जा फिर
कौए का मटके में कंकड़ जैसे..
डाल-डाल जल ले पी और जी फिर जाने वाला।
लगे कि ऐसा
कहें क्या अब कैसा,
मानसरोवर सुभर जल..
मातृभाषा रक्तचालक, मातृभाषा अद्भुत पल।।-