आजकल मैं कुछ ज्यादा ही मुस्करा रहा हूँ
शायद अपने गमो को भुलाने की
फिर नाकाम कोशिश कर रहा हूँ......-
खिला है राजीव मानस सरोवर में
सूर्य रश्मि के छुअन से,
आह्लादमय आमोद फैलाते हुए
ख़ुद भी है सार्थकता की चोटी पर!!-
इंतज़ार है उनका की
आज वो आने वाले हैं
आज गम की बिदाई है
खुशियां तमाम
लाने वाले है ....
- राजीव
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फुर्र से उड़ जाती है चिड़िया !
मेरे पास क्यूँ आती है चिड़िया !!
हम कितना खुद को छिपा लें
हो जाता है सब कुछ उरियां !!
सामने जब भी वो आ जाए है
चुप-चुप हो जाती है चिड़िया !!
हमने जब भी उसको देखा है
कुछ-कुछ कहती है चिड़िया !!
मेरे भीतर जो"वो" रहता है
बस उसकी सुनती है चिड़िया !!
पेड़ों को काटे जाए है आदम
गुमसुम-सी रहती है चिड़िया !!
क्यूँ सोचे है इतना तू गाफिल
सब चुग जायेगी ये चिड़िया !!
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चाहता कोई भी तो नहीं
मगर ज़िन्दगी में
हर किसी को ही
क़दम-दर-क़दम
या यूँ कहूँ कि अक़्सर
मिल जाया करते हैं
बच्चों के खिलौनों की तरह
बेशुमार धोखे ही धोखे
एक कौर का भी जब
निगला नहीं जा पाता
नमक बढ़ा हुआ
ज़रा-सा ग्रास....
तब भी पचा लिए जाते हैं
अनचाहे भी
गहरे-से गहरे धोखे
क्योंकि वो एकदम से
अचानक से आते हैं
शेष कविता अनु शीर्षक में-
सर्वोच्चता को लाँघ कर
आसमां फर्लांग कर
सुमति में रम रहो
स्वयं में तुम थम रहो
उत्कृष्टता की डोर हो
नवीनता की भोर हो
इक अनूठा सातत्य हो
जो सत्य से अनुरक्त हो
कलम ही वो म्यान हो
सुघड़ता की जो धाम हो
सार्थकता की वो खान हो
कलात्मकता की जान हो
भरे-पूरे मुकामों में
इक तेरा वो मुक़ाम वो
तेरे किये कार्यों का
एक बेहतरीन ईनाम हो
चली चलो चली चलो
बढ़ी चलो बढ़ी चलो
मंजिल तुम्हारी तलाश में
रुको न तुम बढ़ी चलो !!
#राजीव #थेपड़ा-
कदम-कदम पर कॉन्ट्रास्ट
क्या कहूँ मैं और क्या ना कहूँ
हृदय पर कितने हैं आघात
क्या कहूँ मैं और क्या ना कहूँ
इक तरफ़ भूखे नंगों की फौजें
इक तरफ़ पेट भरों की मौजें
इक तरफ़ दावानल और संत्रास
इक और जैसे तिलिस्म का भास
चकित हूँ मैं यह सब देखकर
क्या कहूँ मैं और क्या ना कहूँ
इन सबको देख जीना है हमको
इन सबके बीच ही जीना है हमको
कहते हैं इसे कर्मों का फलाफल है
मुझको लगता मगर ये हलाहल है
जी करता है कि चीख पडूं मगर मैं
क्या कहूँ मैं और क्या ना कहूँ !!
रो पडूँ हूँ मैं तो अक्सर देख देखकर ये
समझ न आये,हो रहा है क्या तो ये
मैं अवाक हूँ,मैं अचंभित,क्या जाने क्या हूँ
क्या कहूँ मैं ,क्या कहूँ मैं ,क्या कहूँ !!
#राजीव थेपड़ा-
दिन भर जागा हुआ है दिन
उसे सो जाने दो
रात को हम करेंगे
उदासियों पे बात
बस उसे भी ज़रा आधी
तो गुजर जाने दो !!
@राजीव थेपड़ा-
एक सन्नाटा सा क्यूं पसरा है चारों ओर I
ना ही अंधेरा है, और ना ही झींगुर का शोर I-