ना परो गोरी कोई के चक्कर मे
ना मिलहे इते कोई हमाये टक्कर में
नई तो काटहो धान, बनाहो रोटी
फिर मताई केहे हमाई मोड़ी की किस्मत फूटी..-
कछू तो बात है गोरी तुमाई बातन में।
नींद में भी उठ जात है हम रातन में।।-
कुछ तो बात है गोरी तुमाई बातन में,
सारा गाँव पुछत है सही राह तोसे-
गोरी तोरे रूप को ऐसो फैलो रंग
ओंठ खुले के खुले रहे मन रह गओ दंग.-
बुन्देलखण्ड के महान कवि श्री ओम प्रकाश सक्सेना "प्रकाश" जी की कुछ पक्तिंयाँ मुझे बहुत अच्छी तरह याद हैं |जो कि घूँघट की प्रथा को ध्यान में रखकर लिखी गयी हैं , जैसा कि देखा जाता है कि जो महिला घूँघट डालती है उसे अगर आस-पास कुछ देखना होता है तो वो बगल से थोड़ा सा घूँघट सरका लेती है |
प्रकाश जी को "ईसुरी"की उपाधि के अलावा कई
पुरुस्कारों से भी नवाज़ा गया था ,अब वो इस दुनियाँ में
नहीं हैं |
घूँघट नाँवचार कौ डारें,डारें कछू उघारे |
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बारिश के लहजे में मत पड़
ये धोखा ही बारिश का है।
तुम प्यारा मौसम कहते हो
वो मौसम ही साज़िश का है।
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ये गोरी नए जमान की तुम नहीं जानत इकी खूबी
रोटी तुम्हार खिलावत भी,खुद ही बनवात भी जरुरत पड़ी तो कमावत भी-
जेठ दुपहरिया लपट है चल रही,भौजी चोंखे टपका,
पानी भरवे को वे जा रहीं,धरे मूड़ पे मटका।
ठाड़े मोड़ा गौर से देखें, टपके देह पसीना,
भींजी भौजी लगें सपरतीं, चमके हार नगीना।
एसो रूप न पहले देखो,मोड़ा लगे सन्नाने,
भीड़ तो भैया ऐसी लग गई, जैसे ततैया भन्नाने।
कह "अनुश्री" सब जन से बोले,ऐसी नौनी दुपहरिया,
भौजी तो हैं बहुतांई न्यारी,ओढ़ें हैं जो फरिया।
(लपट=लू,सपरतीं=नहाना, चोंखें=चूसना, टपका=आम
मोड़ा= लड़का, नौनी=अच्छी, सन्नाने=मस्ती करना, फरिया=एक प्रकार की चुनरी, ओढ़नी)
बुंदेलखंडी शब्दों को पिरोने का एक छोटा सा प्रयास।
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बाहर हमें निकरने नईयां ।
चाहे कोऊ कहै सौ दईयां ।।
सबई जनें हैं हमखां प्यारे।
आस पड़ोस मुहल्ला वारे ।।
गांव शहर कस्बा के बासी ।
सबसें बिनती एक जरा सी।।
भैया कोऊ न निकरौ बाहर ।
बाहर फिरत "करोना" नाहर ।।
ऊ काहू खां छोड़त नईयां ।
चाहे कोऊ कहै सौ दईयां।।
ऊनै जी खां पकरई पाओ ।
झटपट अपनौ ग्रास बनाओ ।।
ऊसें सबखां बचकें रानैं ।
घर सें बाहर तनक न जानैं ।।
न दिखात न झपटा मारै ।
चुपके,छिपकैं ठाड़ो द्वारैं ।।
पकर पायै, ऊ छोड़त नईयां ।
चाहे कोऊ कहै सौ दईयां ।।
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