निकला वो अल्फाज़ होकर सवार
जब कलम कि नोक पर ,
दम नहीं था किसी मे जो दिखता
आगे बडते को रोक कर ।
था बड़ा जोश ,लश्कर, रंग-ए-जलाल मेरा ,
गिरा काग़ज कि ज़मी पर हुआ वो हाल मेरा ,
हर सकक्ष ने पुकारा लेकर अलग नाम मेरा ,
हैरा था मै देखकर हुआ वो अंजाम मेरा,
किसी ने गाली ,किसी ने मवाली ,
किसी ने सवाली तो किसी ने ताली ,
से किया अहतराम मेरा ।
गलत नही था, मगर पसद नही था
मै ऊसे ईस लिबास मे।
ये बात ओर है वो समझता रहा मुझे
अपनी समझ के हिसाब से,
-