जब जब खुद को
ढूंढने निकलती हूं
हर दफा एक हारा हुआ इंसान
ही पाती हूं
बहुत कोशिशें की है मैंने
खुद को समझाने की,पर
यकीन मानिए साहब
कुछ वक्त के बाद ये सारी
कोशिशे बेअसर सी हो जाया करती हैं
पर जब जब पीछे मुड़कर
निहारती हूं तब तब
एक पागलपन सा छा जाया
करता है,कब रो रही हूं
कब हंस रही हूं,खिलखिलाता
चेहरा कब यूं खामोश हो जाता है
कुछ समझ नहीं आता,बस
मेरी कोशिशे बेअसर हो गई हैं अब
हॉ भीड़ में भी आजकल अकेली
रहने लगी हूं मैं
हॉ हजार दोस्त है मेरे पर
यकीन मानिये साहब
"कोई साथ नहीं...!"
"हॉ,जब जब खुद को ढूंढने
निकलती हूं,खुदमे तब तब
एक हारा हुआ इंसान
पाती हूं खुद में...!"
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