तुम प्रेम के प्रकाश सी उज्ज्वल
मैं घृणा का घोर अंधकार प्रिये
मुश्किल है अपना मेल प्रिये
यह प्यार नही हैं खेल प्रिये-
रोशनी पूंजी नहीं है, जो तिजोरी में समाये,
वह खिलौना भी न, जिसका दाम हर गाहक लगाये,
वह पसीने की हंसी है, वह शहीदों की उमर है,
जो नया सूरज उगाये जब तड़पकर तिलमिलाये,
उग रही लौ को न टोको,
ज्योति के रथ को न रोको,
यह सुबह का दूत हर तम को निगलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।-
जानहिन एक पुतला-सा,
बेरंग ज़िन्दगी की शाम।
धकेलता हर एक रात,
गहरी अंधकार की गिरफ़्त में।
न कोई अपना रहा,
ना कोई सहारा बचा।
काल के संहार से,
हर हौसला धीमा पड़ा।
करें भी तो क्या करें?
किस्मती लकिरों का अभाव है।
मेहनतकश बन क्या करें?
जब विपरीत परिणाम है।
भ्रम का जाल है चारों ओर,
खुद को बचायें कैसे?
जब झूठ की तलवार पे,
सच का गला कट रहा।
हम नास्तिक नहीं हैं,
पर आस्तिकता से क्या मिला?
जब धर्म की नींव पर,
अधर्म का महल बन रहा।
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बेताबियां बेसब्रियां बेचैनियां ये सब मिला
बस एक तू ही नहीं।
इंतज़ार इनकार अंधकार ये सब मिला
बस एक तू ही नहीं।
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‘प्रकाश’ उद्गम-आश्रित
‘अंधकार’ सर्व-भूत है,
एक आदि-अंत से बाध्य;
दूजा अनादि-अनंत है।
‘अंधकार’ सर्वत्र है
यही अन्त्य-सत्य है,
‘अंतःप्रकाश’ मिथक मात्र;
‘अंतःतम’ ही ब्रह्म-सत्य है
‘अंतःतम’ ही ब्रह्म-सत्य है।-
शिव विश धारण कर, संसार बचाए!
आज मनुष्य विश धारण कर!
खुद को मिटा रहे हैं!-
स्वप्न पूर्ण होने को था,
दो सखियों का ।
अदृश्य हो जाता फिर,
अंधकार गहरी अखियों का।
अंश-से थे ,
खुशियों के ;
खुशी-खुशी बीन लिए।
मजबूरियों के साये में,
पलक झपकते ही छीन लिए ॥
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कभी डरा करता था अन्धेरे से
अब अंधेरा मुझसे डरता है
शायद मेरे अंदर का अंधकार
घना है बाहर के तम से-
शब्दों में भाव ढूँढता हूँ
भाव में कविता
कविता में गहराई
गहराई में ख़ुद को
ख़ुद में ख़ुदा
ख़ुदा में तुम्हें
और जब मिलती नहीं तुम
हो जाते हैं गुम
शब्द, भाव, कविता
मैं और मेरा ख़ुदा
सब के सब
गहन अंधकार में
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गुमनामी के अंधकार में जिये जा रहें हैं..
बेगुनाह हूँ फिर भी गुनाहगार हुए जा रहे हैं ।
वक़्त बुरा है मेरा इसलिये मौन हूँ..
सही वक्त पे बता दूंगा कि कौन हूँ ।।-