कभी कभी एक मुलाक़ात बोहोत होती है,
और कभी कभी सॉ मुलाक़ातें भी काफी नही!
कभी कभी दो अल्फ़ाज़ अपना बनाने के लिए काफी है,
तो कभी कभी एक पूरा अनुच्छेद कम हो जाता है!
कभी कभी सिर्फ आंसू काफी होते है,
तो कभी कभी सिसकती हुई अल्फ़ाज़ भी पर्याप्त नही!
क्या काफी है और क्या नही,
ये तो सिर्फ वक़्त तय कर सकता है!
कभी कभी जो हमे चाहिए सब से ज़्यादा,
वही कभी मुफ्त में मिल जाये तो भी नही भाता!
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