एक उम्र गुजारी;
माँ के दिये पैसे,
कभी गुल्लक में न गये,
गये तो सिर्फ दुकान पर,
खुशियाँ खरीदने,,
जो गुल्लक में जरूर जाती थीं,
और बढ़ती रहती थीं,,
मजाल है,
पापा का दिया एक पैसा भी,
गुल्लक में न गया हो,,
डर से नहीं,
उनके काँधों की जिम्मेदारियों से,,
अब न माँ है,
न पापा...!
पर आज भी है;
माँ की दी गई गुल्लक,
और भरी हुई खुशियाँ,,
पापा के दिये गये सिक्के,
और मजबूत कन्धे...।
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