एक उम्र गुजारी;
माँ के दिये पैसे,
कभी गुल्लक में न गये,
गये तो सिर्फ दुकान पर,
खुशियाँ खरीदने,,
जो गुल्लक में जरूर जाती थीं,
और बढ़ती रहती थीं,,
मजाल है,
पापा का दिया एक पैसा भी,
गुल्लक में न गया हो,,
डर से नहीं,
उनके काँधों की जिम्मेदारियों से,,
पर आज भी है;
माँ की दी गई गुल्लक,
और भरी हुई खुशियाँ,,
पापा के दिये गये सिक्के,
और मजबूत कन्धे...।-
उत्तर की त-लाश में हूँ।
मैं...!
चाह कर भी,
गुलाब पर,
कैसे लिखूँ ...?
कमल अभी,
कुम्भला रहा है।-
मैं वर्तमान के पुल खड़ा,
देखता हूँ,,
अतीत शून्य है,
वर्तमान शून्य भी नहीं,
भविष्य भी शून्य है,,
पर दूर कहीं,
शून्य को ऐंठ कर,
लुढ़का कर,
कोई अकेला अनंत बना रहा है,,
शायद वो तुम हो...!-
कवि...!
कविता लिखकर,
सो जाता है,,
कविता...!
सदियों तक,
जगाती रहती है,
अध-मुंदी अलसाई पलकों को,,-
मेरे दोस्त...!
मैं हसीन हूँ,
तुम्हारे ख़्वाबों में,,
तुम मेरी तस्वीर,
मेरे ख़तों की कतरन से बनाते हो,,
मैं खुश नसीब हूँ,
तुमने ख़तों के सिवाय,
कभी कोई तस्वीर भी न मांगी,,
मैं तुम्हारे ख़्वाबों में,
अपना चेहरा देख कर,
बावरी सी हो जाती हूँ,,
कुछ पल को भूल ही जाती हूँ,
मेरा चेहरा एसिड... से बना है...।-
दान की गई कन्यायें,
हो जाती हैं,
जिन्दा लाशें,,
लाशें चाह कर भी,
चीख़ नहीं सकतीं,,
अगर चीख़ें भी तो,
सुनने वाली होती हैं,
सिर्फ लाशें,,
जो कभी,
बोल ही नहीं सकती,,
दान की गई कन्यायें,
हो जाती हैं,
जिन्दा लाशें,,-
मैं भी बिक गया,
एक कविता बेंच कर,,
कविता लिख कर,
लगाकर कीमत एक रुपया,,
टहलने निकल गया बाज़ार,,
खरीद-दार ने बिना कुछ बोले,
मुट्ठी में दिया एक रुपया,,
और खरीद कर ले गया मुझे,,-
एक आदमी,
खुद से,
इमानदार बना।
और
इतिहास की,
पहली कहानी बना।
हरिश्चंद्र...!-
दिन जलाता हूँ,
रात सुलगती है,,
तब जा कर,
हिसाब के चूल्हे में,
सुकून की रोटियां पकती हैं,,-
मैं कलम की आगोश में,
डूबा... हुआ,,
खिड़की पे खडी जिम्मेदारियाँ,
पुकारती... हैं मुझे,,
चाहती... हैं,
उनको देख कर,
देख लूं... खुद में,,
जिंदगी की सांसें,
चार दिन हैं बचीं,,
काम इतना,
कि काम कर-कर के मरूं...,
तब भी,
पूरा होने की कोई बात नहीं,,
जा... रहा हूँ,
जिम्मेदारियों के तले,,
गर मुझे,
चार दिन की जिंदगी में,
आख़िरी दिन भी मिले,,
तो मैं आप से जरूर मिलूं...।-