उल्फत को कैसी ये नज़र है लगी
हूर-ओ-क़ुसूर खुल्द से उतर दुल्हन सी सजी
तारों की छाँव में शर्म क़मर को लगी
हुस्न-ए-मल्लिका आज रफी़क़-ए-हयात बनी
बिखरे ख्वाब संजोए, गुलशन सी वो खिली
इश्क़ के मेले में वो नाज़नी हया से पिघली
कमरबंध नागिन सी बलखा चंदन पर लिपटी
नाभिमुँदरी यो कस्तूरी नाभि में शादाब हुई
माथे की बिंदिया यो शम्स की आभा बिखरी
मांग-टीका मानो आकाशगंगा आफाक़ से लिपटी
अक़्द का मोज़जा है, चाँदनी ने दी गवाही
हक़्क़-ए-महर से राजी़ आज़ ये शब-ए-शबाब है
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