आसमाँ इतनी बुलंदी पे जो इतराता है
भूल जाता है ज़मीं से ही नज़र आता है-
उसी को जीने का हक़ है जो इस ज़माने में
इधर का लगता रहे और उधर का हो जाए-
मैं इस उमीद पे डूबा कि तू बचा लेगा
अब इस के बाद मिरा इम्तिहान क्या लेगा-
दूर से ही बस दरिया दरिया लगता है
डूब के देखो कितना प्यासा लगता है
ज़ेहन से काग़ज़ पर तस्वीर उतरते ही
एक मुसव्विर कितना अकेला लगता है
~वसीम बरेलवी-
क्या करें... वो है ही गरम "चाय" जैसी,
पिये तो "जुबा" जल जाए, ना पिये तो "दिल"।
Kya karen... wo hai hee garam "Chai" jaisi,
Piye to "Zuba" jal jaye, na piye to "Dil".
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तिरे ख़याल के हाथों कुछ ऐसा बिखरा हूँ
कि जैसा बच्चा किताबें इधर-उधर कर दे-
क्या दुख है समुंदर को बता भी नहीं सकता
आँसू की तरह आँख तक आ भी नहीं सकता
तू छोड़ रहा है तो ख़ता इस में तिरी क्या
हर शख़्स मिरा साथ निभा भी नहीं सकता
प्यासे रहे जाते हैं ज़माने के सवालात
किस के लिए ज़िंदा हूँ बता भी नहीं सकता
वैसे तो इक आँसू ही बहा कर मुझे ले जाए
ऐसे कोई तूफ़ान हिला भी नहीं सकता-
हम भी इज़हार-ए-इश्क़ छुपाये मुस्कुराते रहे "वर्मा"
और, वो समझें इश्क मुकम्मल हो गया मेरा।-
रख ले तू जमीं जिश्म आसमां रूह वक्त
तेरा
जिस रक़ीब के नशे में बहकी है तू मेरी
जां
खुदा न करे उस रक़ीब से पर्दा उठ
जाए।...
मुझसे भी कही ज्यादा, टूटेगी तू उस वक्त
उस दिन
बस हकीकत से कुछ ऐसे तू वाकिफ़ न हो
जाए।।....-