कैसे बयाँ करें हम,
"विरह" की ये वेदना.......
भाए ना जिसमे,
किसी की भी संवेदना.......
नख से शिखर तक लबालब,
पानी से भरे ऐ बदरा.........
करले खुद पर गर्व,
कितना भी तू क्यूँ ना.......
लेकिन विरह मे बहे ,
एक आँसू में जो ठंडक है......
वह पूरे सावन के,
मेघों में भी मिलकर है कहाँ.....
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विरह-वेदना जो बन के आई...
कट गई काँटों भरी वो रात...
छोडो प्यारे अब सपने की बात...
हो गया प्यारा मधुर 🌞सुप्रभात🌞...-
वीरह-अग्नि में देखो...
मैं ऐसे जल रहा हूंँ...
मुलायम बिस्तर पर भी...
पल-पल करवट बदल रहा हूंँ...-
'बरसे', 'भीगे' बहुत हम |
नैनन हुई बरसात ||
कान्हा तुमसे मिलन की |
फिर भी बुझी न प्यास ||
मन मेरा प्यु -प्यु कहे |
हर पल रहे उदास ||
हर पल लगाए बैठी हूँ |
कृष्ण मिलन की आस||
बीते रैन बिताए ना |
हर छन ये तड़पाए ||
कान्हा मम हृदय बसो |
मन तबहि सुख पाए ||
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क्यों बिरह पथ पर बढ़ रहा...??
अपनों से नाता तोड़ रहा...??
महत्वकंक्षाओं के लिए तू...
क्यों अपनी मिट्टी को भूल रहा...
क्या करेगा तू धन पाकर...
क्या करेगा लाखों जुटाकर...??
लोगों के दिल में अगर तू...
जिंदा खुद को न रख सका...
तो क्या करेगा तु महल बनाकर...
सुन ले हो तो मूर्ख प्राणी....
अंत में तेरे हाथ कुछ ना आएगा...
अकेला ही तू आया था ...
और अकेला ही तू जाएगा....-
"कुछ पलों का हमारा साथ है,
फिर किस्मत में लिखी जुदाई है...
ले जाने हमें देखो,
ये विरह की घड़ियां आयी हैं..."
मिलन की झंकार अब एक,
अंतहीन कविताएं हैं...
ख्वाब और जज्बात नहीं अब,
बची सिर्फ एक वेदना है.."
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